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सोमवार, 22 मार्च 2010

क्यों ?







                                                                  

        





 क्यों ?



क्यों   न सोचना चाहते हुए भी
         सोचते जाते हैं लोग 
         दुनियां की भीड़ में
         तन्हाइयों में डूब जाते हैं लोग


क्यों   न मुस्कराना चाहते हुए भी
         छलकती आँखों से मुस्कराते हैं लोग
         गमों को छुपाकर
         अश्कों को पीये जाते हैं लोग


क्यों   न जीने की चाह होकर भी
         जिन्दगी जीये जाते हैं लोग
         सफर की मंजिल पर
         तन्हा रह जाते हैं लोग............?

सोमवार, 15 मार्च 2010

हसरत-ए-मंजिल

हसरत-ए-मंजिल












न मैं बदला
न तुम बदली
न ही बदली
हसरत-ए-मंजिल
फिर क्यूं कहते हैं सभी
कि बदला सा सब नज़र आता है
शमा छुपा देती है
शब-ए-गम के
अंधियारे को
वो समझते हैं
कि हम चिरागों के नशेमन में जिया करते हैं ...............!!


सु..मन 

बुधवार, 10 मार्च 2010

ढलती शाम

ढलती शाम

अकसर देखा करती हूँ
शाम ढलते-2
पंछियों का झुंड
सिमट आता है
एक नपे तुले क्षितिज में
उड़ते हैं जो
दिनभर
खुले आसमां में
अपनी अलबेली उड़ान
पर....
शाम की इस बेला में
साथी का सानिध्य
पंखों की चंचलता
उनकी स्वर लहरी
प्रतीत होती
एक पर्व सी
उनके चुहलपन से बनती
कुछ आकृतियां
और
दिखने लगता
मनभावन चलचित्र
फिर शनै: शनै:
ढल जाता
शाम का यौवन
उभर आते हैं
खाली गगन में
कुछ काले डोरे
छिप जाते पंछी
रात के आगोश में
उनकी मद्धम सी ध्वनि
कर्ण को स्पर्श करती
निकल जाती है
         दूर कहीं..................!!





सु..मन 

शनिवार, 6 मार्च 2010

अस्तित्व

हर वर्ष 8 मार्च को नारी दिवस मनाया जाता है1अखबारों , टेलिविज़न , पत्रिकाओं में अनेक लेख छपते हैं उन सभी के बारे में जिन्होनें अपने जीवन में कोई मकाम हासिल कर लिया है पर इस दिवस पर उन सभी नारियों को अपनी ये कविता समर्पित करती हूँ जिनकी प्रतिभाएं किसी कारणवश उजागर न हो सकी और उनका अस्तित्व घर की चार दिवारी तक ही सीमित रह गया............


अस्तित्व

दी मैनें दस्तक जब इस जहाँ में
कई ख्वाइशें पलती थी मन के गावं में
सोचा था कुछ करके जाऊंगी
जहाँ को कुछ बनकर दिखलाऊंगी
बचपन बदला जवानी ने ली अंगड़ाई
 जिन्दगी ने तब अपनी तस्वीर दिखाई
मन पर पड़ने लगी अब बेड़ियां
रिश्तों में होने लगी अठखेलियां
जुड़ गए कुछ नव बन्धन
मन करता रहा स्पन्दन
बनी पत्नि बहू और माँ
अर्पित कर दिया अपना जहाँ
भूली अपने अस्तित्व की चाह
कर्तव्य की पकड़ ली राह
रिश्तों की ये भूल भूलैया
बनती रही सबकी खेवैया
फिसलता रहा वक्त का पैमाना
 न रुका कोई चलता रहा जमाना
चलती रही जिन्दगी नए पग
पकने लगी स्याही केशों की अब
हर रिश्ते में आ गई है दूरी
जीना बन गया है मजबूरी
भूले बच्चे भूल गई दुनियां
अब मैं हूँ और मन की गलियां
काश मैनें खुद से भी रिश्ता निभाया होता
 रिश्तों संग अपना ‘अस्तित्व’ भी बचाया होता !!



सु..मन 
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