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शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

कैद-ए-रिहाई


               

                 जिंदगी उलझने लगी है, सब्र टूटने लगा है
                 खुद की आजमाइश में, दिल डूबने लगा है ।

                 वक़्त के पहलू में , जाकर हमने देखा
                 ये रेत की तरह, हाथों से फिसलने लगा है ।


                 विचारों की जुम्बिश में, भटकता हुआ मन
                 कैद-ए-रिहाई को , अब तड़पने लगा है ।


                                     


                                                            सुमन




23 टिप्‍पणियां:

  1. मन तो उन्मुक्त ही होता है, रहना भी चहता है।

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  2. कशमकश को छोड़ दे तू
    रुख हवा का मोड़ दे तू
    खाली पैमाना है तेरा
    हो सके तो तोड़ दे तू

    जवाब देंहटाएं
  3. थक गया मैं करते करते याद तुझको.
    अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ !!!

    जवाब देंहटाएं
  4. तब तो शीघ्र मुक्त हो जायें विचार बन्धनों से।

    जवाब देंहटाएं
  5. सुंदर गजल
    हार्दिक शुभकामनायें दीपावली की

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत खूब लिखा है आपने।
    ----
    दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
    कल 24/10/2011 को आपकी कोई पोस्ट!
    नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  7. bahut sundar likha hai apne dil ko chho gaya..
    Time mile to mere bolg par bhi padhare..

    जवाब देंहटाएं
  8. Mahfooz Ali Comment through mail


    सुमन जी .... आपकी कविता बहुत अच्छी लगी.... विचारों की जुम्बिश वाली लाइंस बहुत अच्छी लगीं... पर पता नहीं कमेन्ट पोस्ट नहीं हो हो रहा है.... Error 404 शो हो रहा है,.......

    आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें.....

    जवाब देंहटाएं
  9. वाह!!
    अच्छी रचना....
    आपको दीप पर्व की सपरिवार सादर शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत सुन्दर रचना...
    दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं

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