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रविवार, 28 अक्तूबर 2012

ऐ क्षितिज !















ऐ क्षितिज !

जब लौट जायेंगे सब पाखी
अपने आशियाने की ओर 
और सूरज दबे पाँव धीरे धीरे 
रात के आगोश में चला जायेगा 
आधा चाँद जब दूर कहीं होगा 
चाँदनी के इन्तजार में 
मेघ हौले हौले सूरज को देंगे विदा 
तब तुमसे मिलने आऊंगा 
समा लूँगा तुमको अपने अंदर 
खुद तुममें समा जाऊँगा ....!!

तुम्हारा सागर ...



सु-मन 

36 टिप्‍पणियां:

  1. क्षितिज का लालित्य छलक रहा है आपकी पंक्तियों में... बधाई
    पंकज त्रिवेदी
    नव्या

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुन्दर चित्रंांकन शब्दों का ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दिल से शुक्रिया प्रवीण जी ..चित्र को देख कर ही शब्द उभरे हैं ..

      हटाएं
  3. ख़ूबसूरत भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति...

    जवाब देंहटाएं
  4. क्षितिज के ख़ूबसूरत रंग कविता में समा गए हैं।

    जवाब देंहटाएं
  5. मन आज क्षितिज सा,
    हुआ जान पड़ता है,
    दूर से मानो सब,
    समाए मुझमें,
    पास आने पर,
    कोई न अपना सा ।

    बहुत दिनों के बाद ,हमेशा की तरह एक खूबसूरत रचना | ब्लॉग पर इतनी लम्बी अनुपस्थिति क्यों !!

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बढ़िया...

    ये "उत्तर प्रत्युत्तर दें" टैब कैसे लगाया..

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत खूब
    क्षितिज से गुफ्तगू

    जवाब देंहटाएं
  8. उत्तर
    1. शुक्रिया लोकेन्द्र जी ...सागर भी कम खूबसूरत नही है ...:)))

      हटाएं
  9. ... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।

    आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)

    जवाब देंहटाएं
  10. बड़ी खूबसूरती से आपने सागर और आकाश की दूरियाँ मिटा दी.

    आभार.

    जवाब देंहटाएं

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