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शनिवार, 21 नवंबर 2015

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (५)

                     पहली बार जब जिन्दगी ने दरवाजा खोला था उस पल क्या महसूस किया होगा इस एहसास से अनभिज्ञ होते हैं हम | धीरे धीरे दरवाजे को लाँघ कर जब जिंदगी के आशियाने में प्रवेश करते हैं तो दुख सुख के कमरे मिलते हैं जिनकी चार दीवारी को हम अपनी इच्छाओं के रंग पोत देते हैं | उन दीवारों पर होती हैं हमारे दिल की ओर झाँकती खिड़कियाँ जो वक़्त के साथ साथ कभी खुली और बंद दिखती हैं |
दरअसल , खिड़कियाँ अनवरत आती जाती हमारी साँसें हैं ...थक जाने वाली जिन्दगी की अनथक साँसें ..बेहिसाब साँसें !!

सु-मन 

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