चुरा लाई हूँ तुम्हें तुम्हारे दरख़्त से रख दिया है सहेज के अपनी नज़्मों के पास बहुत ख़्वाहिश थी बिताऊँ चन्द लम्हें तुम्हारे आगोश में डल के किनारे बैठ करूँ हर शाख से बातें महसूस करूँ तुम्हारा वजूद उतार लूँ तुमको मन के दर्पण में ये सोच- ले आई तुम्हें अपने साथ कि मेरी हर नज़्म अब बर्ग-ए-चिनार होगी ।।