एक क्षण -
ओझल हो गया सब
भूत का बोझ उठाये
शिथिल कदमों में आ गई आतुरता
झुक गया 'मैं' का स्वामित्व
आसान न था
उस पार का सफर
मिथिल भ्रम की उपासना का मोह
जन्मजात क्रियाओं का दम्भ
बहुतेरा था इस पार के स्थायित्व के लिए
मझधार, भावनाओं का ज्वार
डोलता रहा इस पार से उस पार
स्थितप्रज्ञ तुम देखते रहे मेरा बे-मेल प्रवाह
'मैं' तलाशता रहा तुम्हारी बाहों का सहारा
बाद,एक क्षण -
जब बंद थी आँखें
श्वास होकर भी श्वास रहित अनुभूति
कदम निश्चेत फिर भी चेतना का विस्तार
पर-स्थित तुम फिर भी मुझमें व्याप्त
ले गए मुझे बिन डोर उस पार
और उस एक क्षण जी लिया 'मैं' अपनी हर श्वास ।
सु-मन