जानते हो कनु !
और सो गयी सरहाने पर सिर रख कर
बिना तुम्हारा स्वागत किये ।
सारा दिन तुम्हारे नाम का उपवास किये
हर धड़कन पर तेरी मुरली का संगीत लिए
प्रतिपल विस्मृत सी तुम्हारी याद में
करती रही अपने हर काम ।
जाने क्या हुआ कनु !
जिस पहर जागा रहा सारा जगत
तुम्हारी जन्म की मंगल वेला में
वहीं अकल्पित मैं-
आँखें मूँद क्यों बैठ गयी तुम्हारे ख़याल में
निशीथ में तुम्हारे आगमन से ठीक पहले ।
तुम बाँह पसारे अठखेलियाँ करते
आये और समा गये हर मूरत, हर मन में
और मैं तुम्हारे ख़यालों की दुनिया में
अवचेतन मन से करती रही तुम्हारा सुमिरन ।
तुमने उस घड़ी मुझे क्यों नहीं जगाया कनु ?
सारे दिन तुम्हारे आगमन को लालायित मैं
क्यों अपात्र रही उस पूजा अर्पण में ....
पर जानते हो कनु !
इस क्षणभंगुर देह से परे
मेरी आत्मा में व्याप्त तुम
कैसे पृथक हो सकते हो मुझसे..
पूजा विधि से अनभिज्ञ मैं
तिरोहित कर अपना सर्वस्व तेरे चरणों में
उस पावन घड़ी भी तुममें समाहित थी ।
भाव की प्यास से तृप्त मेरे एकल योगनिद्रा स्वामी !
निद्रा के अवचेतन मन से समर्पित भाव तुमको स्वीकार्य हो !!
सु-मन
जन्मदिन मुबारक कान्हा !!