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रविवार, 10 जून 2012

एक क्षण ठहर कर

14 अप्रेल 1984 में वीर प्रताप अखबार में प्रकाशित मॉम की कविता














मुझे याद है
जब भी वहाँ
‘उस’ खिडकी से
झाँका करती थी
देखा करती थी मैं
दूर गगन में
ऊन के फाहों की तरह
तैरते
श्वेत – श्याम
बादलों को
सरोवर में खिले
कमल-दलों को |
तब मेरा भी
मन करता था
समीर संग चल दूँ
चल कर
घन-मंडलों में
जल-कण बन
छिप जाऊं
सरसता में सरसाऊं
प्यासी धरा को |
सुगंध सदृश
बस जाऊं सुमन में
खिल जाऊं
जन-जन की मन बगिया में
गुलपकावली के
नव-पुष्पित फूलों की तरह |
लेकिन यहाँ
‘इस’ खिडकी को खोलते ही
सामने आये
भयंकर तूफ़ान
घोर घन-गर्जना
कड़कती बिजली,
महसूस हुआ एक धमाका
अपने भीतर
और अनजाने ही
अजनबी भय से कांपते
हाथों ने मानो 
खिडकी बंद कर दी
सदा के लिए अब
अक्सर
सोचती हूँ
मिटा दूँ खुद अपनी हस्ती
न काँटों की चुभन हो
न फूलों सी आह |
लेकिन तभी
‘एक क्षण’
ठहर कर पूछता है मुझसे
क्या
उचित होगा यह
तुम्हारे लिए ?




दमयंती कपूर 





10 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर............
    बहुत सुन्दर कविता....................
    प्रकाशन हेतु बधाई....

    अनु

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  2. फेसबुक पर पढ़ लिया था, यहाँ भी आकर पढ़ लिया... बहुत ही सुन्दर कविता है....

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार (12-062012) को चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  4. बहुत ही सुन्दर कविता, उड़ानों की कितनी चाहें प्रश्नों में उलझ कर रह गयी हैं।

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  5. वाह बहुत खूब!!! बहुत ही बढ़िया गहन भाव अभिव्यक्ति....

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  6. खिड़कियाँ बंद करने से हालात नहीं बदलते

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  7. खिडकी खुली रखें प्रकृति का यह भी एक अलग रूप है । सुंदर प्रस्तुति ।

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  8. bohot badhiya likha hai... keep writing. one suggestion do keep adding picture credits it will make your blog more attractive also you will give credit where it comes from.. its fair...

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