14 अप्रेल 1984 में वीर प्रताप अखबार में प्रकाशित मॉम की कविता
दमयंती कपूर
मुझे याद है
जब भी वहाँ
‘उस’ खिडकी से
झाँका करती थी
देखा करती थी मैं
दूर गगन में
ऊन के फाहों की तरह
तैरते
श्वेत – श्याम
बादलों को
सरोवर में खिले
कमल-दलों को |
तब मेरा भी
मन करता था
समीर संग चल दूँ
चल कर
घन-मंडलों में
जल-कण बन
छिप जाऊं
सरसता में सरसाऊं
प्यासी धरा को |
सुगंध सदृश
बस जाऊं सुमन में
खिल जाऊं
जन-जन की मन बगिया में
गुलपकावली के
नव-पुष्पित फूलों की तरह |
लेकिन यहाँ
‘इस’ खिडकी को खोलते ही
सामने आये
भयंकर तूफ़ान
घोर घन-गर्जना
कड़कती बिजली,
महसूस हुआ एक धमाका
अपने भीतर
और अनजाने ही
अजनबी भय से कांपते
हाथों ने मानो
खिडकी बंद कर दी
सदा के लिए अब
अक्सर
सोचती हूँ
मिटा दूँ खुद अपनी हस्ती
न काँटों की चुभन हो
न फूलों सी आह |
लेकिन तभी
‘एक क्षण’
ठहर कर पूछता है मुझसे
क्या
उचित होगा यह
तुम्हारे लिए ?
दमयंती कपूर