कभी कभी यूँ ही मन खिन्न सा हो जाता है | अकारण ही बिना किसी वजह के | एक क्षण
शांत दूसरे क्षण उतना ही व्याकुल | क्यों ऐसा होता है ? किसी एक व्यक्ति के साथ
नहीं शायद हर व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी ये क्षण आते हैं | इसका कारण जानने के
प्रयास में बस यही जान पाई कि हमारा अचेतन मन कहीं न कहीं सक्रीय है बिना किसी
हलचल के ..बस ताकता रहता है हमें हमारे कर्मों को ..कुछ नहीं बोलता बस थामे रखता
है हर लम्हा हमारी जिंदगी का | जिदंगी चलती जाती है और हम भी ..फिर किसी क्षण
हमारा मन उद्वेलित हो उठता है या यूँ कहूँ कि हमारे चेतन जगत में अपनी सक्रियता
बताने लगता है तो उस क्षण हम खिन्न हो उठते हैं | अकारण ही हमें लगता है कि कोई
कारण नहीं है पर कारण कहीं न कहीं छिपा पड़ा है जो हम देख नहीं पाते क्यूंकि हमारे
आज से उसका कोई मेल नहीं , हम सोचते हैं आज तो जिदंगी ठीक चल रही है बिना किसी रोक
टोक के ..फिर ये भटकन क्यूँ ? पर ये वही सबकुछ है.. दबा सा..हमारी सोच का हिस्सा
जो कहीं दफ़न होता है मन के किसी कोने में और जाने अनजाने , चाहे अनचाहे धीरे धीरे
सरक रहा होता है समय के साथ साथ और किसी क्षण में हमें अपने होने का एहसास दिलाने
के लिए यूँ आकर मिलता है अकारण ही.. निशब्द में लीन होकर हमें बहुत कुछ कह जाता है
!!
अकारण और कारण के बीच की नजदीकी कमतर थी या होने और ना होने के बीच का फासला..
क्या मालूम ..हाँ, अनकहा जो सुना , बहुतेरा था उस एक क्षण के लिए !!
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-२)