मन !
ये जो आस की तुरपन है ना ..उधड़ी जाती है अब ..विश्वास के धागे को सिलते सिलते
डगमगाती सूई की चुभन का स्पर्श मेरे ज़िस्म से होकर तुम तक जो पहुंचा तो तुम भी रो
दिए मुझ संग | विश्वास के धागे की पकड़ कम रही या या आस की तुरपन से बने उन खाली
हिस्सों की लम्बाई की बढ़त जिनमें कुछ फ़ासला होना जायज़ था | इस बढ़ते खालीपन को
सिलना या यूँ कहो भरना आस का कारण था | ऐसा क्यूँ होता है मन .. क्यूँ एक पल में
बंधी आस दूजे पल टूट जाती है | क्यूँ लम्हों को सिलना फिर खुद उन्हें उधेड़ना पड़ता
है और वक़्त की मुट्ठी में कैद आस को खालीपन में बींध कर चिन्हित करना पड़ता है भीतर
कहीं तुम्हारे पास ||
आस बंधी और फिर टूट गई ..खबर भी नहीं हुई किसी को ..क्या कुछ घट गया भीतर नहीं
जान पाया कोई ..जो कुछ घटा तेरे मेरे बीच घटा .. ‘मन’ अब तो समझा दे ..तू मेरा
कौन है !!
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-१)
कोई किसी का क्यों होता है ... ये तो कोई भी नहीं जान पाता ... फिर मन की क्या बात ... वो तो भटकता है इधर उधर ... पकड़ता है सिरे जोड़ने के लिए ...
जवाब देंहटाएंमन ऐसा ही होता है
जवाब देंहटाएंबंधने और टूटने का दर्द किससे कहे...स्वयं ही सहता रहता है मन यह दर्द..
जवाब देंहटाएंMan...man ka hi to sara khel hai..ise sadh liya to sab sadha..chor diya to wo jaaaaaa
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 4-12-2014 को चर्चा मंच पर गैरजिम्मेदार मीडिया { चर्चा - 1817 } में दिया गया है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
कोई तुरपन करके कितना भी खालीपन को सिलने की कोशिश कर ले मन के फासलों को मिटाना आसान नहीं होता इसकी चुभन कहीं बहुत गहराई तक आत्मा को भी बींध देती है ! बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंमन के क्या कहने
जवाब देंहटाएंमन तो चंचल है ,न जाने कहाँ कहाँ जाता है
जवाब देंहटाएंनज़र रखिये ,न जाने क्या गुल खिलाता है !
ऐ भौंरें ! सूनो !
सुन्दर .....
जवाब देंहटाएंman ka kya man aisa hi hAi....umda bhaaw kavita ke lajawaab
जवाब देंहटाएंman ka kya man aisa hi hAi....umda bhaaw kavita ke lajawaab
जवाब देंहटाएंअत्यंत सुन्दर !!!
जवाब देंहटाएंaas bndhi...fir tut gyi................kisis ko khabr bhi nhi
जवाब देंहटाएंbahut hii sehaj bhaaw...khoobsurat khyaal...
:)