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मंगलवार, 1 मार्च 2016

सोच की हद















हर बार सोचती हूँ
एक हद में सिमट जाऊँ
कर लूँ अपनी सोच को
एक अँधेरी कोठरी में बंद
दुनिया की रवायत संग
जीने लगूं एक बेनाम जिंदगी
बांध अपने पैरों में बेड़ियाँ
चल दूँ राह पर उस तरफ
जिस तरफ ले जाना चाहे कोई
दिल दिमाग के हर दरवाजे पर
लगा दूँ एक जंग लगा ताला
मन के वांछित कारावास से
कर दूँ निर्वासित अपना वजूद !
*****
सोच से हदें तय हुई या हदों से सोच ..कौन जाने ...जाना तो बस इतना कि हदों की खूंटी पर टंगे रहते हैं वजूद के लिबास और सोच के ज़िस्म पर पहनाई जाती हैं कुछ बेड़ियाँ !!



सु-मन 

15 टिप्‍पणियां:

  1. सुमन ...... बेशक एक वाजिब प्रश्न उठाया ........ बंदिशों में क़ैद है सोच या हमारी सोच ने बाँध लिया है हमको

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  2. सोच के शब्दों में कितना कुछ कह दिया सुमन ...

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  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 03 मार्च 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  4. सोच पर कौन नियंत्रण कर पाया है ..
    बहुत सुन्दर ..

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  5. आपने लिखा...
    कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 04/03/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
    अंक 231 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।

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  6. बहुत सुन्दर भावों की प्रस्तुति। बधाई

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  7. बहुत सुन्दर भावों की प्रस्तुति। बधाई

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  8. बहुत सुन्दर भावों की प्रस्तुति। बधाई

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  9. बहुत सुन्दर भावों की प्रस्तुति। बधाई

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  10. वाह..
    सोच की हद से बाहर निकल कर ही कुछ तय हो सकता है. बेहद गंभीर लेखन।

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