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सोमवार, 24 दिसंबर 2012

आखिर कब तक ???


कब तक लूटती रहेगी
रोज अस्मत सरे बाज़ार
कब तक यूँ एक बेटी  
रोज बेआबरू की जायेगी |

कब तक चुकानी है कीमत
उसको एक लड़की होने की
कब तक एक निर्दोष पर
यूँ अंगुली उठाई जायेगी |

कब तक शोषित होगी नारी
इस सभ्य संकीर्ण समाज में
कब तक उसके अरमानो की   
यूँ रोज चिता जलाई जायेगी |

कब तक ..आखिर कब तक ???



सु-मन 

शनिवार, 24 नवंबर 2012

वक़्त



















ऐ राही !
तुम उसे जानते हो
वो तुन्हें जानता भी नहीं
तुम संग उसके चलते हो
वो ठहरता भी नहीं
तुम पथ पर ठोकर खाते हो
वो गिरता भी नहीं
तुम मंजिल भूल जाते हो
वो भटकता भी नहीं
तुम रिश्तों से घबराते हो
वो बंधता भी नहीं
तुम भावों में घिर जाते हो
वो सिमटता भी नहीं
तुम खोकर पाना चाहते हो
वो पीछे हटता भी नहीं
तुम जीत की चाह रखते हो
वो लड़ता भी नहीं
तुम फिर से जीना चाहते हो
वो मरता भी नहीं
तुम उसे जानते हो -२
वो तुम्हे जानता भी नहीं
तुम संग उसके चलते हो
वो ठहरता भी नहीं
वो ठहरता भी नहीं !!


सु-मन  

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

शब्द से ख़ामोशी तक ...अनकहा मन का


ख़ामोशी में बहुत कुछ है अब ...सुनने को ....वो भी जो तब नहीं सुन पाई थी .....जब शब्द बात करते थे ....अब चारों पहर बस ख़ामोशी ही गुनगुनाती है हमारे बीच ...और राह तकते शब्द थक कर सो जाते हैं गहरी नींद ......!!

(शब्दों का न होना सालता है कभी कभी ....पर ख़ामोशी मन को बांधे है ...दोनों एक दूसरे के पूरक हैं शायद)



सु-मन 

रविवार, 28 अक्टूबर 2012

ऐ क्षितिज !















ऐ क्षितिज !

जब लौट जायेंगे सब पाखी
अपने आशियाने की ओर 
और सूरज दबे पाँव धीरे धीरे 
रात के आगोश में चला जायेगा 
आधा चाँद जब दूर कहीं होगा 
चाँदनी के इन्तजार में 
मेघ हौले हौले सूरज को देंगे विदा 
तब तुमसे मिलने आऊंगा 
समा लूँगा तुमको अपने अंदर 
खुद तुममें समा जाऊँगा ....!!

तुम्हारा सागर ...



सु-मन 

सोमवार, 25 जून 2012

एक लम्हा
















कुछ अरसा पहले
एक लम्हा
ना जाने कहाँ से
उड़ कर आ गिरा
मेरी हथेली पे
कुछ अलग सा
स्पर्श था उसका
यूँ लगा... मानो !
जिंदगी ने आकर
थाम लिया हो हाथ जैसे
और मैंने उस हथेली पर
रख कर दूसरी हथेली
उसे सहेज कर रख लिया |

शायद ये दबी सी ख्वाहिश थी
जिंदगी जीने की.....

वक्त बदलता रहा करवटें
और मैं
उस लम्हे से होकर गुजरती रही
.
.
वहम था शायद !
मेरा उस लम्हे से होकर गुजरना ..

आज, अरसे बाद
वो लम्हा
मांगे है रिहाई मुझसे
अनचाहे ही मैंने
हटा ली हथेली अपनी
कर दिया रिहा उसको
अपने जज्बात की कैद से |

पर ..आज भी उसका स्पर्श
बावस्ता है मेरी इस हथेली पर
दौड रहा है रगों में लहू के संग

यही है जीने का सामान मेरा
यही जिंदगी के खलिश भी है ....!!


सु-मन 

रविवार, 17 जून 2012

ऐ बाबुल


















बाबुल मोहे रहने दे
अपनी प्यारी बिटिया ही  
मत तोड़ मुझे डाली से
खिलने दे अपनी बगिया ही …….

बेटा बनकर तुझको संभालूं
बुढ़ापे का बनूँगी सहारा भी
कभी न छोडूंगी तेरा दामन
आँखें बन करुँगी उजियारा भी

बाबुल मोहे रहने दे
अपनी प्यारी बिटिया ही......

रिश्ते जहाँ में झूठे हैं सारे
नहीं और रिश्ता तुझसा कोई
क्यूँ कहें दुनिया मोहे ऐ बाबुल
बेटी जैसा बोझ ना दूजा कोई

बाबुल मोहे रहने दे
अपनी प्यारी बिटिया ही.....

माँ की लोरी याद है आती
वो मुझको सहलाती बाहें तेरी
पुकारे मुझको घर का आँगन
ये महकती हुई फुलवारी तेरी

बाबुल मोहे रहने दे
अपनी प्यारी बिटिया ही.......

बचपन में तूने थामा हाथ मेरा
अब तुझको ना गिरने दूंगी कभी
समय को बदलने दे अपने तेवर
तू डर मत मैं न बदलूंगी कभी

बाबुल मोहे रहने दे
अपनी प्यारी बिटिया ही.....

कभी ना भटकूंगी कर्म पथ पर
हर मुश्किल से लड़ लूंगी मैं भी
आशीष तेरा रहे सदा मुझ पर  
बस इतना कर्म करना तू भी


बाबुल मोहे रहने दे
अपनी प्यारी बिटिया ही
मत तोड़ मुझे डाली से
खिलने दे अपनी बगिया ही........!!




                                     


  सु ..मन 

रविवार, 10 जून 2012

एक क्षण ठहर कर

14 अप्रेल 1984 में वीर प्रताप अखबार में प्रकाशित मॉम की कविता














मुझे याद है
जब भी वहाँ
‘उस’ खिडकी से
झाँका करती थी
देखा करती थी मैं
दूर गगन में
ऊन के फाहों की तरह
तैरते
श्वेत – श्याम
बादलों को
सरोवर में खिले
कमल-दलों को |
तब मेरा भी
मन करता था
समीर संग चल दूँ
चल कर
घन-मंडलों में
जल-कण बन
छिप जाऊं
सरसता में सरसाऊं
प्यासी धरा को |
सुगंध सदृश
बस जाऊं सुमन में
खिल जाऊं
जन-जन की मन बगिया में
गुलपकावली के
नव-पुष्पित फूलों की तरह |
लेकिन यहाँ
‘इस’ खिडकी को खोलते ही
सामने आये
भयंकर तूफ़ान
घोर घन-गर्जना
कड़कती बिजली,
महसूस हुआ एक धमाका
अपने भीतर
और अनजाने ही
अजनबी भय से कांपते
हाथों ने मानो 
खिडकी बंद कर दी
सदा के लिए अब
अक्सर
सोचती हूँ
मिटा दूँ खुद अपनी हस्ती
न काँटों की चुभन हो
न फूलों सी आह |
लेकिन तभी
‘एक क्षण’
ठहर कर पूछता है मुझसे
क्या
उचित होगा यह
तुम्हारे लिए ?




दमयंती कपूर 





शुक्रवार, 8 जून 2012

मन बावरा




















मन बावरा
उड़ने चला
पंख बिना


टूटे पंख
छूटे सपने
बादल बरसे


कलम भीगी
लफ्ज़ पनपे
नज्म उभरी !!









सु-मन 



रविवार, 13 मई 2012

दर्द





















दर्द अब पत्थर हो गया है
आँखें वीरान पथरीली जमीन

अहसास इकहरे ही घूमते रहते हैं
इस छोर से उस छोर
अपने अस्तित्व की तलाश में...

लहू तेजाब सा रगों में बावस्ता है
दिल झुलस रहा आहिस्ता-आहिस्ता
जख्म से नासूर बनने तक...

जाने कितनी साँस बाकी है अभी
जाने और कितना दर्द पत्थर होने को है...!!  




सु-मन



मंगलवार, 1 मई 2012

इंसान ओढ़े है नकाब
















आज चारों ओर
देखने को मिलते हैं
नकाब ओढ़े इंसान |

अक्सर 
फाईलों के ढेर में
अपने सर को छुपाए
दिखाई देते हैं जो
निर्बल असहाय से
काम के बोझ तले दबे |

पर स्वत: ही
बदल जाता है
उनका स्वरूप
ज्यूँ ही
मेज के नीचे से
सुनाई देने लगती है
उनको
हरे कागजों की सरसराहट |

तब
बदल जाता है
उनका चेहरा
और ओढ़ लेता है
इक नकाब
आँखों में
आ जाती है
एक चमक
धीरे –धीरे
खिसकने लगता है
उनके मेज पर से
फाईलों का ढेर...!!


सु-मन  

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

सीले से लफ्ज़























यूँ ही दरवाजे पे  दी दस्तक

कुछ बीते लम्हों ने

खोला .....तो देखा

कुछ सीले सीले से लफ्ज़

मेहमां बनकर

खड़े हैं सामने मेरे

समेट कर हथेली पर

ले आई मैं उनको अन्दर

यादों के सरहाने रख दिया है अब उनको भी.......!!


सु-मन