बारहा हुआ यूँ कि
ज़ेहन में दबे लफ्ज़
निकाल दूँ बाहर
खाली कर दूँ
भीतर सब
रूह पर पड़े बोझ को
कर दूँ कुछ हल्का
लिखूं वो सब अनचिन्हा
जो नहीं चिन्हित कहीं और
सिवाय इस मन के
...पर
हर बार
लिखे जाने से पहले और बाद के अंतराल में
लौट आते हैं कुछ लफ्ज़
सतह को छूकर , बेरंग से
बैठ जाते हैं आकर
मन के उसी कोने में चुपचाप
यूँ तो पन्नों पर
पसर जाती है एक पूरी नज़्म
फिर भी
कलम तलाशती रहती है
उन ख़ामोश लफ्ज़ों को
मन टटोलता रहता है
कुछ पूरा ..वो अनचिन्हा !!
(अधूरा कुछ भी नहीं ..जो कुछ है उसका होना है ..उसका घटित होना ...पूरा या अधूरा नामालूम किस घड़ी मन में चिन्हित हुए ...मालूम है तो बस इतना कि पूरे से ज़रा सा कम है ...)
सु-मन
बहुत ही खूबसूरत रचना व लेखन , सु..मन जी धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंI.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
शुक्रिया आशीष जी
हटाएंbadhiya hai aapki post....
जवाब देंहटाएंपसंद करने के लिए आभार आपका
हटाएंसुन्दर शब्द सुमन जी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया योगी जी
हटाएंबहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंसादर
शुक्रिया यश :)
हटाएंपूरा कभी हो ही नहीं पाता --कुछ न कुछ शेष रह जाता है हमेशा !
जवाब देंहटाएंजी
हटाएंपूरा कभी हो ही नहीं पाता ,कुछ-न-कुछ शेष रह जाता है हमेशा !
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने ...और वो शेष ही सृजनशीलता का आधार है ।
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंbahut hi khubsurat rachna...
जवाब देंहटाएंजर्रानवाजी आपकी
हटाएंbahut hi khubsurat rachna...
जवाब देंहटाएं:)))))))
हटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंचयन के लिए आभार आपका
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्रतिभा जी
जवाब देंहटाएंकहाँ हो पाता है मन चाहा पूरा..और इस सम्पूर्णता की तलाश ही जीवन है...बहुत प्रभावी रचना..
जवाब देंहटाएंपूरा उतर आये पन्नों पर फिर भी रहता कुछ अधूरा सा !
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति !
सच है! न जाने क्यूँ अक्सर बहुत कुछ पूरा होते हुए भी सब कुछ अधूरा ही लगता है।
जवाब देंहटाएंरह ही जाता है कुछ ऐसा जिसे हम शब्दो मे व्यक्त नही कर पाते...,सुन्दर भाव...
जवाब देंहटाएंअधूरा कुछ भी नहीं ..जो कुछ है उसका होना है ..उसका घटित होना ...पूरा या अधूरा नामालूम किस घड़ी मन में चिन्हित हुए ...मालूम है तो बस इतना कि पूरे से ज़रा सा कम है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत कविता , आत्म विश्लेषण
khoobsurat kavita !
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता |ब्लॉग पर आने हेतु शुक्रिया |
जवाब देंहटाएंमृत्यु और जीवन दो दरवाज़े हैं जीवात्मा एक दरवाज़े से निकल कर दूसरे में प्रवेश करता है। अंतकाल में व्यक्ति जो सोचता है उसी को प्राप्त होता है जो कृष्णभावना अमृत में रहता है वह वैकुण्ठ को जाता है उसके लिए यह अंतिम मृत्यु यानी परान्तकाल साबित होती है। सुन्दर पोस्ट।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना1
जवाब देंहटाएंसुन्दर ,
जवाब देंहटाएंआभार ,
आपके ब्लॉग पर फीडबर्नर सुविधा नहीं दिखी जिससे की आपके लेख सीधे मेल पर प्राप्त कर सके ,मेरा मेल - manoj.shiva72@gmail.com