बाबुल !
मौन हैं ये क्षण
पर भीतर
अंतर्द्वन्द गहरा
फैल रही
मानसपटल पर
सारी समृतियाँ
झर रहे हैं वो पल
आँखों से निर्झर
चल दिए थे
जब तुम
निर्वात यात्रा
छोड़ सारे बन्धन
... बीते दो बरस
माँ भी बदल गई
दिखती है उम्रदराज
हंस देती है बस
बच्चों की चुहल से
वैसे रहती है
चुपचाप |
देखो ! उस कोने में
बीजा था जो तुमने
प्यार का बीज
अब हरा हो गया है
एक डाली से
निकल आई हैं
और तीन डालियाँ
खिलते है सब मौसम
उसमें तेरे नेह के
अनगिनत 'सुमन'
माँ सींचती है उनको
अपने हाथों से
करती है हिफाज़त
हर आँधी से
यही है उसके
जीने का सामान
यही तेरी निशानी भी है !!
सु-मन
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज मंगलवारीय चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंअत्यंत भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी ! श्र्द्धापूर्वक शत नमन आपके पिताजी को !
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंअंकल जी को हार्दिक श्रद्धांजली
सादर
बहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी...हार्दिक श्रद्धांजलि आपके पिता जी को...
जवाब देंहटाएंबेहद ही भावपूर्ण..... रिश्ता ही कुछ ऐसा है ये...
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण मर्मस्पर्शी !
जवाब देंहटाएंगहराई से बातों को आपने बुना है इस कविता में................शत-शत नमन।
जवाब देंहटाएंमार्मिक और भावपूर्ण ... दिल ओ छु के गुज़र जाती हैं आपकी पंक्तियाँ ....
जवाब देंहटाएंकिसी एक के जाने से कितनों को फर्क पड़ जाता है ..
सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना ।
जवाब देंहटाएंपापा के जाने के बाद--- वाकई जीवन का बहुत कुछ पीछे
जवाब देंहटाएंछूट जाता है,माँ को देखकर लगता है कि कहीं कुछ खो गया है --
मार्मिक और भावुक कविता
मन नम हो गया
उत्कृष्ट प्रस्तुति ----
आग्रह है ------मेरे ब्लॉग में सम्मलित हों
http://jyoti-khare.blogspot.in
भावपूर्ण रचना ।
जवाब देंहटाएंसभी का शुक्रिया
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