इस दफ़ा शब्दों के मानी बदल गए
नहीं उतरे कागज़ पर , तकल्लुफ़ करते रहे
वक़्त के हाशिये पर देता रहा दस्तक
अनचिन्हा कोई प्रश्न, उत्तर की तलाश में
कागज़ फड़फड़ाता रहा देर तक
बाद उसके, थोड़ा फट कर चुप हो गया
आठ पहरों में बँटकर चूर हुआ दिन
टोहता अपना ही कुछ हिस्सा वजूद की तलाश में
एक सिरकटी याद का ज़िस्म जलता रहा
सोच के दावानल में धुआँ धुआँ
जिंदगी दूर बैठ उसे ताकती रही, अपलक
सुलगती रही बिन आग, याद के साथ साथ !!
दरअसल -
वक़्त दिन तारीख नहीं होते एक दूसरे से जुदा
शब्द ढूँढ ही लेते रास्ता कागज़ पर उतरने का
यादें कभी बंजर नहीं होती जिंदगी के रेगिस्तान में !!
सु-मन
अच्छी अभिव्यक्ति । सुन्दर, अति सुन्दर।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (26-06-2019) को "करो पश्चिमी पथ का त्याग" (चर्चा अंक- 3378) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर सृजन!
जवाब देंहटाएंवक्त के हाशिए पर देता रहा दस्तक
जवाब देंहटाएं………………
बाद उसके थोड़ा फटकर चुप हो गया।
वाह क्या बात है!
बहुत खुब।
राजीव उपाध्याय
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ जून २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बेहद सशक्त
जवाब देंहटाएंयादें कब बंजर होती हैं भला
Khoobsoort second last paragraph especially
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