पवित्रता और अपवित्रता मन की होती है तन की नहीं । चाहे कितनी भी पूजा अर्चना कर लो, मन्दिर के फेरे लगा लो, मन अपवित्र तो तन से की पूजा का कोई महत्व नहीं । अगर मन पवित्र तो तन की अपवित्रता गौण हो जाती है वो अपवित्रता जो मनुष्य द्वारा रचित है । उपासनाओं का मार्ग मन से होकर निकले तो निश्छल होता है और तन में ही रुक जाए तो छलावा ।
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२१)
हाँ, बात तो ठीक ही है आपकी।
जवाब देंहटाएंसत्य वचन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर तथा प्रेरक कथन । बहुत शुभाकामनाएं आपको सुमन जी ।
जवाब देंहटाएंगहनतम भाव ,सटीक विवेचना, तन और मन की पवित्रता का भेद बहुत सुंदर से बताया आपने।
जवाब देंहटाएंउम्मीद करते हैं आप अच्छे होंगे
जवाब देंहटाएंहमारी नयी पोर्टल Pub Dials में आपका स्वागत हैं
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ये भाव ही पवित्रता की ओर अग्रसर करता है। काश , अधिसंख्य इसे समझ नही पाते।
जवाब देंहटाएंBahot Acha Jankari Mila Post Se . Ncert Solutions Hindi or
जवाब देंहटाएंAaroh Book Summary ki Subh Kamnaye
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बहुत सुंदर
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