जीने के लिए
खाया भी पीया भी
भोगा भी खोया भी
किये अनेक तप चाहा मनचाहा फल
बजती रही मंदिर की घंटियाँ
जलता रहा आस्था की डोर का दीपक
मरने से पहले बुझी नहीं आस की लौ |
बीच सफ़र
डगमगाए कदम बहुत बार
बढ़ा भी रुका भी
गिरा भी संभला भी
बीने कंकर चल दिया राह पर अनथक
चलती रही आंधियाँ
बरसे बहुत गम के बादल
राह का धुंधलका घुलता रहा मंजिल पाने तक |
हर पल हर घड़ी
आती जाती रही बेआवाज़ साँसें
धड़का भी थमा भी
जीया भी मरा भी
मुखरित हुआ मौन बढ़ती रही जिंदगी
बदलते रहे पहर
लिखी जाती रही इबारत वक़्त के पन्ने पर
होती रही भोर काली रात बीत जाने के बाद |
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(अब तक जो जीया हाथ की लकीरों में था ...लकीरों में थी जिंदगी ....जिंदगी में बहुत कुछ था पर कुछ भी नहीं ....उस कुछ की तलाश में है अभी जीना भर शेष ...मेरे लिए !!)
सु..मन
यह 'कुछ' निर्वाण है, और मोह से बंधा मनुष्य इसकी तलाश में चलता जाता है
जवाब देंहटाएंकभी रुकता है, कभी चलता है
कभी भूल जाता है फिर रोता है ....
हांजी रश्मि आंटी ..यही जीवन है ...कुछ पा कर खोना और कुछ खो कर पाना |
हटाएंबहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया राजीव जी
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जवाब देंहटाएंमुखरित हुआ मौन बढ़ती रही जिंदगी
बदलते रहे पहर ...
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विमल मित्र के कालजयी उपन्यास ये नरदेह आँखों के आगे घूम गया आपकी पोस्ट को पढ़कर .......
बहुत खूब...खूबसूरत प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंbahut khub.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (14-04-2014) के "रस्में निभाने के लिए हैं" (चर्चा मंच-1582) पर भी होगी!
बैशाखी और अम्बेदकर जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
क्या बात है। लाजवाब अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंहर रात के बाद सुबह के प्रति आश्वस्त हैं।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंकविता की प्रत्येक पंक्ति में अत्यंत सुंदर भाव हैं... बहुत सुन्दर कविता..
जवाब देंहटाएंbahut sundar phalsapha jindgi ka .......
जवाब देंहटाएंkhubsoorat rachna..hamesha ki tarah :)
जवाब देंहटाएंक्या खूब सोच रखती हैं आप. अच्छा लगा पढ़ कर ! लकीरों की लकीर ढूँढना ही तो ज़िन्दगी है !
जवाब देंहटाएंati sundar! dhanyavaad padhwane ke liye.
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