‘समर्पण की पराकाष्ठा ही शायद उपेक्षा के बीज अंकुरित करती है और कविता को
विस्तार भी यहीं से प्राप्त होता है |’
निवेदिता दी और अमित जीजू द्वारा लिखी कविताओं की पुस्तक ‘कुछ ख़्वाब कुछ
ख़्वाहिशें’ में पाठकों के लिए लिखे शब्दों ये पंक्तियाँ मन को छू गई | समर्पण
और उपेक्षा के बीच उपजती कविता जहाँ आपके अंतर्मन के खालीपन को उजागर करती है वहीं
उसको भर भी देती है क्योंकि आपकी कृति (कविता) आपका सबसे प्यारा मित्र भी होती है
जो आपके एहसास के अनुरूप आपके साथ साथ चलती है | इस पुस्तक में लिखी कवितायेँ कोमल
रिश्तों से जुड़े मानव मन में उठने वाले ज्वार भाटों से गुजरती हुई अनेक पहलुओं को
बयाँ करती है | इन्हीं में कुछ कवितायेँ जो ज्यादा पसंद आई कुछ इस तरह हैं ...
निवेदिता श्रीवास्तव :-
बहुत दिनों से जागी मेरी आँखें
अब तो बस थक गयी हैं
सोना चाहती हैं
कभी न खुलने वाली
नींद में
काश ! कहीं मिल जाये
उन सुरीली लोरी की छाँव ...
‘मेरी आँखें सोना चाहती हैं’ कविता की इन पंक्तियों में माँ की याद की
साफ़ झलक मिलती है कि बेटी चाहे कितनी भी बड़ी हो जाये पर जीवन के हर उतार चढ़ाव में
माँ के साया उसके लिए कितनी अहमियत रखता है और वही साया न रहे तो माँ के प्यार और
दुलार को तरसती बेटी कितनी तन्हा महसूस करती है खुद को |
कविता ‘तुमने कहा था’ में समय की धुरी पर घूमते रिश्ते के बदलते सच को
शब्दों में बहुत ही गहरे से कुछ इस तरह उतारा है ....
तुमने कहा था
निगाहें फेरने के पहले
“तुम जैसी बहुत मिल जाएँगी”
अरे ये क्या
मुझको छोड़ने के बाद भी
चाहत क्यों तुम्हें
मुझ जैसी की ही
और अंत कुछ इस तरह है ...
तुमने कहा था
तुम मेरी दुनिया
बदल दोगे
सच ही कहा था
अब जो दुनिया
तुमने छोड़ी है मेरे लिए
उसमें तो तुम ही बदल गए हो....
एक अलग ही कान्सेप्ट के साथ जीवन से जोड़ती एक कविता का नाम है ‘ आईसक्रीम –
सा जीवन’ | कुछ पंक्तियों में वो लिखती हैं ...
जीवन अपना
आईसक्रीम जैसा
.
.
पर पिघली हुई आईसक्रीम
पिघलकर याद बहुत आती है
सच में बीता जीवन पिघली हुई आईसक्रीम सा ही तो होता है |
कविता ‘सीता की अग्निपरीक्षा’ अपने आप में परिपूर्ण रचना है जो सीता जी
को आधार मान कर स्त्रियों के अस्तित्व को , उनके मनोभावों को कुछ पंक्तियों में इस
तरह उजागर करती हैं :-
मैंने तो रोज़ हटाया शिव – धनुष को
पर रही अनपहचानी , निर्विकार
बस एक बार ही तो उठाकर साधा
राम ने और तोड़ भी दिया
और बन गए
हाँ . मर्यादा पुरषोंत्तम राम !
‘कल्पवृक्ष’ कविता कल्पनाओं , कामनाओं की पूर्ति करते मानवीय रिश्ते को
समय चक्र के साथ साथ घूमती है कि कैसे रिश्ते कल्पवृक्ष बन की कामनाओं को पूरा
करते हैं |
हाँ, सुना है
कल्पवृक्ष
पूरी करता है
कामनाएं सबकी
पर ये
कैसा होता होगा
इसकी शाखा-प्रशाखाएँ
इसको देती होंगी
कितना विस्तार ...
भगवान से अपने कर्मों का हिसाब करती हुई ‘एक छोटी–सी गुल्लक और कुछ चाहतें’
कविता मानव मन का हाल बयाँ करती है वही मन जो चाहतों का गुल्लक है पर उसे ये भी
पता है कि चाहतों के बीच जो खाली जगह बचती है उसे नियति भर देती है |
आज रख दिया
भगवान के सामने
एक छोटी सी गुल्लक
बड़े – बड़े सपनों और
छोटी – सी चाहत के साथ
बताओ न
क्या दे सकते हो
ऐसा वरदान
भर जाये मेरी
छोटी – सी गुल्लक
बस थोड़ी जगह
बच भी जाये
आख़िर
कुछ तुम भी तो
अपने मन का दोगे
हाँ , जो होगा
मेरे ही कर्मों का फल |
.........................................................................................................
अमित श्रीवास्तव
कविता ‘और गुनाह हो गया’ ह्रदय के द्विभावों को दर्शाती हुई रचना है जो
हल्की फुल्की कविता होने के साथ -साथ हृदय की तल्खी को भी कुछ इस तरह बयाँ करती है
:-
मासूम तबस्सुम सी तुम
अश्क पीता गया मैं
और गुनाह हो गया
पूरा चाँद सी तुम
बहक गया मैं
और गुनाह हो गया ....
चुनिन्दा कविताओं में से एक जो बहुत पसंद आई ‘ लालटेन सी जिन्दगी’ | इस
कविता में जिन्दगी की तड़प को अपने शब्दों के ज़रिये बखूबी उकेरा है |
लालटेन सी जिन्दगी
जलाता हूँ रोज़
थोडा थोडा खुद को
रौशनी तो होती है
पर इर्द गिर्द
जमा कालिख़ भी होती है
मन मैला होता है जब
मांजता हूँ , पोंछता हूँ
धीरे से बुझी बाती को बढ़ाता हूँ
फिर से जलाने के लिए .....
रिश्ते से अपेक्षा और उपेक्षा से जुडी ‘पैमाइश लफ्जों की’ एक ऐसी कविता
है जो एक मोड़ तक साथ चलने के बाद आये बदलाव और अंतर्द्वंद को उजागर करते हैं |
देखा है मैंने अक्सर लब तुम्हारे
कुछ कहने से पहले
हो जाते हैं आड़े तिरछे ...
मेरी तो आज भी
ख्वाहिश बस वही
जब भी हो
पहलु में तुम
न हो नुमाइश
लफ्ज़ों की
न हो पैमाइश
मानी की ..
इसी कड़ी में एक कविता ‘एक वृक्ष तीन तनों का’ बहुत गहन लगी जो जीवन वृक्ष और जुड़े
रिश्तों रुपी तनों के जुड़ाव और समय के झोंकों से टूटती चाहों को स्वीकार कर जीवन
दर्शन करवाती है | कुछ पंक्तियाँ ....
वृक्ष जब युवा था कभी
जड़ उग आये थे उसके
कोपल नए
पहले दो निकले....
आज भी चाहता
इतना ही बस
जड़ें बांधे रहे
उस वृक्ष कि
और मजबूती से चिपका रहे
उसके चरों ओर
होकर अदृश्य ही सही |
‘अलिखित से लिखित’ कविता सम्पूर्णता में पूर्णता को कृतार्थ करती हुई
कुछ यूँ कहती है...
अधूरा चित्र सा
ही तो था मन
कुछ उकेरा सा
और कुछ धुंधला सा ...
धीरे धीरे
चित्र मेरा होता गया
अलिखित से लिखित ...
‘गुनगुने आँसू’ जैसी नमकीन कविता कुछ यूँ गुनगुनाती है ...
बर्फ से गाल पे
लुढ़की दो बूँदें
आंसुओं की
गुनगुनी सी
बन गई लकीर
नमक की ....
अंत में कविता ‘क्यूँ लिखूं कविता’ अपने शीर्षक को सार्थक करती हूँ
जिन्दगी के रंजो-ओ-गम से भरपूर कुछ इस तरह लिखी गई है ...
कविता लिखना शायद
होता है कीमोथेरपी जैसा
दर्द और बहुत दर्द के बीच
झूलती जिन्दगी
पर हाँ , उम्र मिल जाती है
थोड़ी सांसों की और
साथ – ही – साथ
उस कैंसर को भी... !!
शब्द तो अपने आप में परिपूर्ण होते हैं | हर लिखा शब्द लिखने वाले के एहसास का
एक जरिया होता है और हर इन्सान के एहसास अलग अलग | हाँ शब्द एक ही होते हैं बस
अभिव्यक्ति अलग अलग | लिखने वाले ने उन शब्दों को जिस भाव से लिखा , उसी भाव से
पढ़ा भी जाये ये मुमकिन तो नहीं फिर भी ‘दीदु जीजू’ ये मेरी कोशिश भर है
आपके लिखे को आत्मसात करने की ..!!
आपकी
छुटकी बेटू
पुस्तक का विवरण
शीर्षक - कुछ ख़्वाब कुछ ख़्वाहिशें
प्रकाशक - हिन्द युग्म प्रकाशन
रचनाकार - निवेदिता अमित
मूल्य रु० - 100/-
ऑनलाइन खरीदने के लिए लिंक - http://www.infibeam.com/SDP.action?catalogId=P-M-B-9789384419332&listingId=P-M-B-9789384419332
अपनी प्रति बुक करने के लिए सम्पर्क सूत्र - मोबाइल 08004921839 (अमित श्रीवास्तव)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अपेक्षाओं का कोई अन्त नहीं - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (09-01-2016) को "जब तलक है दम, कलम चलती रहेगी" (चर्चा अंक-2216) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बढ़िया सुमन ।
जवाब देंहटाएंछुटकी ,क्या बोलूं .. तुमने एकदम निःशब्द कर दिया .... हमारे सोचे लम्हों को जैसे तुमने एक शब्दों के कैनवस पर रंगों से भर दिया .... धन्यवाद तो तुमको कह नहीं पाउंगी बस बहुत बहुत सारा दुलार :)
जवाब देंहटाएंluv u dee
हटाएंluv u dee
हटाएंअपनी रचनायें तो तो सभी को अच्छी लगती हैं परन्तु जब कोई किसी रचना विशेष की प्रशंसा कर देता है तब उसे बार बार पढ़ने का मन करता है । सुमन तुम्हारी टिप्पणियों के बाद से कई बार इन कविताओं को पढ़ चुका हूँ और वो अर्थ ढूंढ रहा जो शायद पहले नहीं देख सका था ,अपनी ही रचनाओं में । बहुत अच्छा लगा ,तुम्हारी पंक्तियों का बहुत बहुत आभार जिनसे हम दोनों का ही मन इत्ता खुश हो गया ।
जवाब देंहटाएं:) शब्द एक अर्थ अनेक ...सभी के अपने अपने भाव होते हैं और अपनी अपनी समझ |
हटाएं:) शब्द एक अर्थ अनेक ...सभी के अपने अपने भाव होते हैं और अपनी अपनी समझ |
हटाएंअफसोस कि आज कल किताबें पढ़ने का वक़्त ही नहीं निकाल प रहा, लेकिन ये किताब तो पक्का टू रीड लिस्ट में है....
जवाब देंहटाएंसार्थक पुस्तक परिचय .
जवाब देंहटाएंvery nice Suman ji
जवाब देंहटाएं