हर बार सोचती हूँ
एक हद में सिमट जाऊँ
कर लूँ अपनी सोच को
एक अँधेरी कोठरी में बंद
दुनिया की रवायत संग
जीने लगूं एक बेनाम जिंदगी
बांध अपने पैरों में बेड़ियाँ
चल दूँ राह पर उस तरफ
जिस तरफ ले जाना चाहे कोई
दिल दिमाग के हर दरवाजे पर
लगा दूँ एक जंग लगा ताला
मन के वांछित कारावास से
कर दूँ निर्वासित अपना वजूद !
*****
सोच से हदें तय हुई या हदों से सोच ..कौन जाने ...जाना तो बस इतना कि हदों की
खूंटी पर टंगे रहते हैं वजूद के लिबास और सोच के ज़िस्म पर पहनाई जाती हैं कुछ बेड़ियाँ
!!
सु-मन
सोच एक चिड़िया है उड़ती रहे अच्छा है ।
जवाब देंहटाएंBahut sundar likha
जवाब देंहटाएंसुमन ...... बेशक एक वाजिब प्रश्न उठाया ........ बंदिशों में क़ैद है सोच या हमारी सोच ने बाँध लिया है हमको
जवाब देंहटाएंसोच के शब्दों में कितना कुछ कह दिया सुमन ...
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 03 मार्च 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर।
जवाब देंहटाएंसोच पर कौन नियंत्रण कर पाया है ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ..
आपने लिखा...
जवाब देंहटाएंकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 04/03/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 231 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
बहुत सुन्दर भावों की प्रस्तुति। बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावों की प्रस्तुति। बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावों की प्रस्तुति। बधाई
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर विचार। बधाई
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर विचार। बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावों की प्रस्तुति। बधाई
जवाब देंहटाएंवाह..
जवाब देंहटाएंसोच की हद से बाहर निकल कर ही कुछ तय हो सकता है. बेहद गंभीर लेखन।