सुबह और रात के बीच बाट जोहता एक खाली दिन ... इतना खाली कि बहुत कुछ समा लेने के बावजूद भी खाली .... कितने लम्हें ..कितने अहसास ...फिर भी खाली ... सूरज की तपिश से भी अतृप्त .. बस बीत जाना चाहता है | तलाश रहा कुछ ठहराव .. जहाँ कुछ पल ठहर सके ...अपने खालीपन को भर सके ।
ठहराव जरुरी है नव सृजन के लिए ...
इसलिए ऐ शाम !
रख रही हूँ एक और दिन तेरी दहलीज़ पर !!
रख रही हूँ एक और दिन तेरी दहलीज़ पर !!
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-१०)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13-07-2017) को "झूल रही हैं ममता-माया" (चर्चा अंक-2666) (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर।
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " संभव हो तो समाज के तीन जहरों से दूर रहें “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंbahut badhiya bhav
जवाब देंहटाएंBeautiful!👌
जवाब देंहटाएंaapki lekhni bahut hi achcha hai. hamare blog par bhi aapka swagat hai-
जवाब देंहटाएंhttps://lokrang-india.blogspot.in/
बहुत गहरी अनुभूति। बस ये कवयित्री की कल्पना ही हो तो अच्छा है।
जवाब देंहटाएं