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गुरुवार, 16 अगस्त 2018

और तुम जीत गए















पक्का निश्चय कर
साध कर अपना लक्ष्य
चले थे इस बार ये कदम
मंजिल की ओर

मन में विश्वास लिए
मान ईश्वर को पालनहार
कर दिया था अर्पित खुद को
उस दाता के द्वार

मेहनत का ध्येय लिए
कर दिए दिन रात एक
त्याग दिए थे हर सुख साधन
कर्म के इम्तिहान में

कभी किसी पल
तुम आकर मुझे डराते
तोड़ने लगते थे मेरा विश्वास
अपने दलीलों से
तब मैं -
मन में ऊर्जा सृजित कर
ख़ामोश कर देती थी तुमको
मेहनत और कर्म की प्रधानता से

बाद महीनों -
तुम फिर मेरे सामने हो
उन्हीं दलीलों के साथ
सशक्त, अडिग,ऊर्जावान
और मैं -
मेहनत के उड़ते रंग लिए
विश्वास की टूटी डोर पकड़े
ख़ामोश, मँझधार , ऊर्जाहीन ।

ऐ प्रारब्ध !
इम्तिहान में हारी मैं और तुम फिर जीत गए !!

सु-मन

8 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ इम्तहानों में हम जानकर fail हो जाना चाहते हैं।कुछ बातों को जानकर हुम् नही जानना चाहते हैं।दिल ही तो हैं आखिर।

    इम्तिहान में हारी मैं और तुम फिर जीत गए !!
    सुंदर लेखन भावपूर्ण रचना।

    जवाब देंहटाएं
  2. असफलता ही अनुभवों के संघठन का मौका देती है और इसके बाद नई ऊर्जा के साथ लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
    सुंदर।

    जवाब देंहटाएं
  3. हारकर जीतने वाले को बाज़ीगर कहते हैं। कभी कभी हारना भी अच्छा होता है। सुंदर प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  4. समय दोहराता है ख़ुद को पर दूसरी बार अनुभव साथ होता है ।।।
    गहरी रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  5. प्रारब्ध को स्वीकारना श्रम के महत्व को कम तो नहीं करता, हाँ उसमें रहस्यमयता का पुट भर देता है..जिन्दगी एक रहस्य ही तो है..

    जवाब देंहटाएं

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