आज चारों ओर
देखने को मिलते हैं
नकाब ओढ़े इंसान |
अक्सर
फाईलों के ढेर में
अपने सर को छुपाए
दिखाई देते हैं जो
निर्बल असहाय से
काम के बोझ तले दबे |
पर स्वत: ही
बदल जाता है
उनका स्वरूप
ज्यूँ ही
मेज के नीचे से
सुनाई देने लगती है
उनको
हरे कागजों की सरसराहट |
तब
बदल जाता है
उनका चेहरा
और ओढ़ लेता है
इक नकाब
आँखों में
आ जाती है
एक चमक
धीरे –धीरे
खिसकने लगता है
उनके मेज पर से
फाईलों का ढेर...!!
सु-मन
kya baat hai.. khoob Nakaab
जवाब देंहटाएंआज की वस्तुस्थिति की रचना
जवाब देंहटाएंसार्थक, सामयिक, सुन्दर, बधाई
जवाब देंहटाएंसटीक चिंतन
जवाब देंहटाएंकटु सत्य ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें ...
हा हा, बहुत खूब, मज़ा आ गया!! :)
जवाब देंहटाएंसब हरे काग़ज़ों की महिमा है। सारा तंत्र उसका शिकार है।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने, कागजों की गतिशीलता का भेद भला कहाँ छिपा है।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
जवाब देंहटाएंbahut saarth hei ..aaj har insaan naqab oude hei ...
जवाब देंहटाएंsaamyik.....
जवाब देंहटाएंकड़वी सच्चाई कों शब्द दे दिये ...
जवाब देंहटाएंहर कोई बस नोटों की भाषा समझना चाहता है ...
हर जगह है यह नकाब ...
जवाब देंहटाएंEk behtareen satya.. naqaab aaj har insaan ke liye jaroori bhi hai kyonki asal chehre se koi pahchanta kahan hai...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक रचना !
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