आजकल बहुत सारे शब्द मेरे ज़ेहन में घूमते रहते हैं इतने कि समेट नहीं पा रही हूँ अनगिनत शब्द अंदर जाकर चुपचाप बैठ गए हैं । एक दोस्त की बात याद आ रही है जब कुछ अरसा पहले यूँ ही शब्द मेरे ज़ेहन में कैद हो गए थे ।उसने कहा था , ' सुमी ! अक्सर ऐसा होता है जब बहुत सारे शब्द हमारे अंदर इकट्ठे हो जाते हैं और हमसे आँख मिचोली खेलते हैं । हमारे लाख बुलाने पर भी बाहर नहीं आते । होने दो इकट्ठे इन्हें अपने अंदर ,एक दिन खुद-ब-खुद बाहर आ जाएंगे और पन्नों पर उतर जाएंगे ।' कुछ वक़्त बाद सच में वो शब्द लौट आये मेरे पास मेरे डायरी के पन्नों पर उतर गए ।
उस दोस्त की बात मुझे अक्सर याद आती है जब भी एक कैद से मुक्त होकर शब्द मुझसे बात करते हैं । उस दोस्त से अब ज्यादा बात नहीं होती जिंदगी की भागदौड़ बहुत बढ़ गई है ना । उसे तो अपनी कही ये बात भी याद नहीं होगी शायद |
मैं इंतजार में हूँ कि अबके भी शब्द मेरी सुन लें और लौट आये मुझ तक कि मेरी डायरी के पन्नों में बसंत खिलना बाकी है अभी !!
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-८)
अच्छा है जमा करते रहो ज्यादा तंग करें तो बन्द कर देना :)
जवाब देंहटाएंसही लिखा है सुमन जी परंतु कभी कभी शब्द आपके मन में बवंडर मचा देते है जब तक उसे आप प्रकट ना कर दें।
जवाब देंहटाएंसाहित्य को क्या खूब परिभाषित किया है आपने सुंदर !
जवाब देंहटाएंहमारे जे़हन में घूमते फिरते हलचल मचाते शब्द हर बार शब्दों की परिभाषा में नहीं ढ़ल पाते............... कभी - कभी मन की मन में ही रह जाती हैं..........बिना कुछ कहें ...........विना कुछ लिखे
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "खुफिया रेडियो चलाने वाली गांधीवादी क्रांतिकारी - उषा मेहता “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेख़
जवाब देंहटाएंशब्द लौटते हैं .. जरूर लौट के आते हैं खुद बी खुद आ जाते हैं ... अपना रास्ता बना ही लेते हैं ...
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना..शब्दों की प्रतीक्षा अवश्य एक दिन रंग लाएगी..
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और भावपूर्ण चिंतन...
जवाब देंहटाएंSUNDAR ABHIVYAKTI
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