माँ !
जलाया है मैंने
आस्था की डोरी से
अखंड दीप
तुम्हारे चरणों में
किया है अर्पित
मुखरित सुमन
मस्तक पर लगा कर
चन्दन टीका
किया अभिषेक
तुम्हारा
ओढ़ाई तारों भरी
चुनरी
रोपा है मैंने
आस का बीज
हाथ जोड़
किया तुम्हारा वन्दन
पढ़ा देवी पाठ
की क्षमा प्रार्थना
फल नैवेद्य कर अर्पण
किया तुम्हारा
गुणगान
हे माँ !
कर अनुग्रह मुझपर
करना फलीभूत मेरे
उपवास
रखना सदा अपना मंगलवास !!
सु-मन
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (21-10-2015) को "आगमन और प्रस्थान की परम्परा" (चर्चा अंक-2136) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
माँ सब मंगल करेंगी ।
जवाब देंहटाएंशरणागतवत्सला देवी सबका कल्याण करें!
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर छवि माँ की... कलश स्थापना का भव्य सौन्दर्य एवं आपके भक्ति भाव पूर्ण शब्द... अप्रतिम!
माँ का आशीर्वाद सदैव मिलता रहे ! सुन्दर भक्तिमय शब्द
जवाब देंहटाएंमाँ की कृपा सदैव बनी रहे, यही प्रार्थना करते हैं हम माँ से ....बहुत सुन्दर
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