(बेटी दिवस पर)
माँ सुनो !
जब पहली बार
किया था महसूस
अपने गर्भ में
मेरा वजूद
तो बताओ ना
मेरी धड़कन में
किसे जिया था तुमने
एक बेटा या बेटी ।
जब कभी
अकेले में बैठ
करती थी मुझसे बात
क्या कुछ पनपता था
तुम्हारे भीतर
एक बेटी की चाह
या बेटे का सपना ।
जब पहली बार
गूँजी मेरी किलकारी
लिया था अपने हाथों में
तुम्हारी सोच की हकीकत को
बताओ ना
कैसे स्वीकारा था तुमने ।
.
.
.
तुम मौन हो माँ
जानती हूँ तुम्हारी चुप्पी
इतने बरस
बेटी के वजूद को
महसूस करती आई हूँ
तुमसे होकर गुजरती
तय कर रही हूँ
तुम्हारे गर्भ से इस घर तक सफ़र !!
तुम्हारी बेटी
सु..मन
माँ ने तो बस एक स्पंदन जिया था.. और अब भी जीती है..
जवाब देंहटाएंबेहद सधा हुआ पोस्ट..
शुक्रिया राहुल जी
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (12-01-2014) को वो 18 किमी का सफर...रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1490
में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी
हटाएंbohat sundar Suman. .. your ma is going to be very proud of you. my regards
जवाब देंहटाएं:) thanx allot Aparna ji
हटाएंबहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया राजीव जी
हटाएंमाँ और बेटी के स्पंदन से ओत प्रोत रचना .... बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया वर्मा जी , बहुत दिनों बाद आपकी दस्तक हुई | अच्छा लगा |
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना कि प्रस्तुति,आभार आपका।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजेन्द्र जी
हटाएंgahre ahsaas.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका
हटाएंबहुत बहुत शुक्रिया
जवाब देंहटाएंजरुर ललित जी , शुक्रिया रचना पसंद करने के लिए |
जवाब देंहटाएंये प्रश्न हा बेटी का है और हर माँ मौन...सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंबेटी की तरह जी हुयी माँ, बेटी का मन समझती है।
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