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शनिवार, 23 नवंबर 2013

जिजीविषा











गूंजने लगे हैं
फिर वही सन्नाटे
जिन्हें छोड़ आए थे
दूर कहीं ... बहुत दूर
तकने लगी हैं
फिर वही राहें
जो छूट गई थी
पीछे ... बहुत पीछे |

ख़याल मन में नहीं बसते अब
बस इसे छूकर निकल जाते हैं
बावरा मन समझ गया है
ख़याल मेहमान है
आये, आकर चले गए
हकीकत साथी है
चलेगी दूर तलक |

ये दो नयन भी नहीं छलकते अब
सेहरा बन गए हैं शायद
जिनमें उग आए हैं
कुछ यादों के कैक्टस
जिनके काँटों की चुभन से
कभी निकल आते हैं
अश्क के कतरे
जज़्ब हों जाते हैं
लबों तक आते आते |

घर में भी इंसान नहीं रहते अब
बस घूमती हैं चलती फिरती लाशें
नहीं पकती चूल्हे पर रोटी
खाली बर्तन को सेंकते
लकड़ी के अधजले टुकड़े
बिखेरते रहते हैं धुआं
तर कर देते हैं 
ये शुष्क आँखें |

कुछ इस तरह
जिंदगी को मिल जाती है
टुकड़ों टुकड़ों में
जीने के लिए
जिजीविषा !!






 सु..मन 

23 टिप्‍पणियां:

  1. मन की गहराइयों से शांत उभरे एहसास

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  2. बहुत खूब ... ये जिजीविषा जरूरी है सांस लेने के लिए ...

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  3. सुमन उम्दा भाव उकेरे हैं ………बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  4. मीत ने
    ना देखा, ना दी कोई आवाज़ ही मुड़कर,
    हम
    आज भी इंतज़ार मैं नज़रें गड़ाए बैठे हैं,
    जैसे
    राह के हाशिये पर एक मील का पत्थर ।

    -पुलस्त्य


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  5. टुकड़ों-टुकड़ों में मिली यही जिजीविषा शायद हर इंसान की नियति है ! बहुत ही सुंदर एवँ सशक्त भावाभिव्यक्ति ! बहुत खूब !

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  6. वाह..!!! सुमन जी बहुत ही सुन्दर लिखा है ....लाजवाब....

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  7. जी, एकदम..एकदम
    टुकड़ा..टुकड़ा तनहा-तनहा
    जिजीविषा ओह..जिजीविषा

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  8. जितनी भी मिले, जैसी भी मिले, जिजीविषा नित भरती रहे।

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