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शनिवार, 28 अगस्त 2021

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२२)

                                               
                            पवित्रता और अपवित्रता मन की होती है तन की नहीं । चाहे कितनी भी पूजा अर्चना कर लो, मन्दिर के फेरे लगा लो, मन अपवित्र तो तन से की पूजा का कोई महत्व नहीं । अगर मन पवित्र तो तन की अपवित्रता गौण हो जाती है वो अपवित्रता जो मनुष्य द्वारा रचित है । उपासनाओं का मार्ग मन से होकर निकले तो निश्छल होता है और तन में ही रुक जाए तो छलावा ।

सु-मन 

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर तथा प्रेरक कथन । बहुत शुभाकामनाएं आपको सुमन जी ।

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  2. गहनतम भाव ,सटीक विवेचना, तन और मन की पवित्रता का भेद बहुत सुंदर से बताया आपने।

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  3. उम्मीद करते हैं आप अच्छे होंगे

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  4. ये भाव ही पवित्रता की ओर अग्रसर करता है। काश , अधिसंख्य इसे समझ नही पाते।

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