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मंगलवार, 8 अक्तूबर 2024

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२६)

                       


                         बेशक कोई रिश्ता हमें जन्म से मिलता है परंतु उस रिश्ते से जुड़ाव हमारे मनोभाव पर निर्भर करता है । जन्म मरण के फेर में हम पाते हैं कि इंसानी जुड़ाव कितना आंतरिक और नैसर्गिक होता है । एक इंसान के चले जाने पर उससे जुड़े सभी इंसानों के मनोभाव पृथक होते है । ईश्वर के रचे इस संसार में बेशक हम सबकी सोच भिन्न है परंतु हम सब एक दूसरे के पूरक भी हैं । 

शायद यही जीवन है ।।


सु-मन 

मंगलवार, 28 जून 2022

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२५)

 


                                  ये जीवन कढ़ाई में उबलती घनी मलाई की तरह है जिसमें हमारे सदगुण व अवगुण ( विकार, विचार, अच्छाई, बुराई, मोह, तृष्णा, विरक्ति) सब एक साथ होते हैं जो उस मलाई की मिठास को प्रतिबंधित किये रखते हैं अपने-अपने स्वरूप के कारण । लेकिन जैसे-जैसे कढ़ने पर एक दूसरे से दूर हटने लगते हैं मिठास (सदगुण) घी के रूप में अपने आप अलग होकर सुगंध के साथ ऊपर आने लगती है और अंत में अवगुणों का कड़वापन सूखे पेड़ा बन निष्क्रिय हो जाता है । इसी तरह जीवन की मिठास पाने के लिये हमें तपना पड़ता है अवगुणों का दमन करना पड़ता है ।

सु-मन 

शनिवार, 23 अप्रैल 2022

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२४)

 



                            मनुष्य अपने कृत्य का उत्तरदायी खुद होता है । दूसरे के प्रत्युत्तर से मिलने वाला क्षणिक सकून सही मायने छलावा है । दूसरे से मिला सुख-दुख, प्यार-माफी तब तक कोई मायने नहीं रखते जब तक मनुष्य खुद अपने कृत्य के लिए सजग ना हो । आत्मग्लानि से भरा मन कभी-कभी आत्मबोध तक ले जाता है ।

सु-मन 

पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२३)

शनिवार, 18 सितंबर 2021

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२३)


                            किसी भी बात का जरूरी व गैरजरूरी होना मनुष्य की जरूरत पर निर्भर करता है । एक प्रश्न किसी के लिए जरूरी हो सकता है परन्तु उसका उत्तर न देकर वही प्रश्न दूसरे के लिए गैरज़रूरी । प्रश्न एक ही लेकिन उसके मायने अलग अलग । जीवन की पाठशाला में निरुत्तर कुछ प्रश्न जरूरत की स्याही ढूँढते रहते हैं ।

सु-मन 




शनिवार, 28 अगस्त 2021

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२२)

                                               
                            पवित्रता और अपवित्रता मन की होती है तन की नहीं । चाहे कितनी भी पूजा अर्चना कर लो, मन्दिर के फेरे लगा लो, मन अपवित्र तो तन से की पूजा का कोई महत्व नहीं । अगर मन पवित्र तो तन की अपवित्रता गौण हो जाती है वो अपवित्रता जो मनुष्य द्वारा रचित है । उपासनाओं का मार्ग मन से होकर निकले तो निश्छल होता है और तन में ही रुक जाए तो छलावा ।

सु-मन 

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२१)

 

                            
                        
                            धरा जब श्वास छोड़ती .. तभी गगन साँस भरता और अदृश्य कण प्रवाहित होते , इस ओर से उस ओर । गगन के हृदय में संग्रहित वही श्वास बादल बनकर मौन की यात्रा करते- करते, एक दिन बारिश बनकर शांत हो जाते और पुन: धरा की श्वास में मिल जाते हैं |

ये एक अंतर्यात्रा है । निर्वात यात्रा ।

सु-मन 

बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

एक नई कोशिश

प्रिय पाठक !

                       ब्लॉग लेखन के सफ़र को 11 वर्ष होने को है | खूब कवितायेँ लिखी और आप सबका  भरपूर प्यार और आशीर्वाद मिला | अपनी कविता को अपनी ही आवाज़ देने की एक नई कोशिश की है, आशा है आप सब पसंद करेंगे |

ब्लॉग जगत की तरह Youtube पर भी आपकी उपस्थिति मेरे लिए बहुत अहमियत रखती है | 

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 https://youtu.be/pw9lqdBji0U


सु-मन 



       कविता की ब्लागपोस्ट का लिंक : छोई जलप्रपात 

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

छोई जल प्रपात














श्वेत समर्पित ये धारा
गर्भित पाषाण
आलिंगन करती धरणी

तन को पुकारती बूंदें
मन से गुजरती रागिनी
नयन की अनबुझ प्यास
कर्णप्रिय ये मधुर नाद
प्रतीत होता मुझे हृदयवास..

प्रकृति के ये मृदु स्वर
हरित कोमल तरुवर
एकल फिर भी अपार
छोई जल प्रपात !!

सु-मन 

(छोई जल प्रपात,हिमाचल के मंडी जिला की सेराज घाटी में विकास खंड गोहर की ग्राम पंचायत बगस्याड में स्थित प्रकृति का बहुत अनुपम व अलौकिक खजाना है ) 

बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२०)


हम अपने अधिकांश जीवन में अनभिज्ञ बने रहते हैं। हमेशा उस वस्तु या इंसान पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो हमारी प्रगति, हमारे मन की शांति में बाधित महसूस होते है और खुद को दुखी करते हैं उस वस्तु / इंसान के कारण। दूसरों को दोषी ठहराते हैं अपने दुख के लिए । वो दुख जो हमारा अपना बनाया है । *बुद्ध* कितनी सरल और स्वाभाविक बात बोलते हैं कोई कुछ भी बोले , कोई वस्तु मन पर कितनी चोट करे बस तुम उसको ग्रहण(आत्मसात) मत करो । जब कुछ तुम्हारा नहीं होगा तो दुख भी ना होगा । बस खुद को पूर्ण रूप से अपना लो । जितना ध्यान बाहर(वस्तु/ इंसान) की तरफ है उतना अंदर की तरफ लगाओ और भीतर आत्मसात कर इस अनभिज्ञता से बाहर आ जाओ ।
मन ! भीतर की यात्रा सफल हो .... |

मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (१९)


                                  कुछ मान्यताओं से बंधे हम, अक्सर उनसे जकड़ कर रह जाते हैं । भूल जाते हैं खुद को, उनके सहारे जीवन जीते हैं और कुछ हासिल न कर दुखी होते हैं । फिर एक क्षण, जाने कैसे उस जकड़न से छूट कर भारमुक्त हो जाते हैं । सच मानो ! उन कुछ मान्यताओं का भार सिर्फ देह पर ही नहीं , मन पर उससे कई गुणा होता है और जब उतरता है तो देह और मन दोनों साँस से भी हल्के हो जाते हैं । यूँ भारमुक्त होना प्रियकर होता है ।

सु-मन 

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