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शनिवार, 25 मार्च 2017

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (९)


 आजकल बहुत सारे शब्द मेरे ज़ेहन में घूमते रहते हैं इतने कि समेट नहीं पा रही हूँ अनगिनत शब्द अंदर जाकर चुपचाप बैठ गए हैं । एक दोस्त की बात याद आ रही है जब कुछ अरसा पहले यूँ ही शब्द मेरे ज़ेहन में कैद हो गए थे ।उसने कहा था , ' सुमी ! अक्सर ऐसा होता है जब बहुत सारे शब्द हमारे अंदर इकट्ठे हो जाते हैं और हमसे आँख मिचोली खेलते हैं । हमारे लाख बुलाने पर भी बाहर नहीं आते । होने दो इकट्ठे इन्हें अपने अंदर ,एक दिन खुद-ब-खुद बाहर आ जाएंगे और पन्नों पर उतर जाएंगे ।' कुछ वक़्त बाद सच में वो शब्द लौट आये मेरे पास मेरे डायरी के पन्नों पर उतर गए । 
                         उस दोस्त की बात मुझे अक्सर याद आती है जब भी एक कैद से मुक्त होकर शब्द मुझसे बात करते हैं । उस दोस्त से अब ज्यादा बात नहीं होती जिंदगी की भागदौड़ बहुत बढ़ गई है ना । उसे तो अपनी कही ये बात भी याद नहीं होगी शायद | 

मैं इंतजार में हूँ कि अबके भी शब्द मेरी सुन लें और लौट आये मुझ तक कि मेरी डायरी के पन्नों में बसंत खिलना बाकी है अभी !!


सु-मन

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