जीने के लिए
खाया भी पीया भी
भोगा भी खोया भी
किये अनेक तप चाहा मनचाहा फल
बजती रही मंदिर की घंटियाँ
जलता रहा आस्था की डोर का दीपक
मरने से पहले बुझी नहीं आस की लौ |
बीच सफ़र
डगमगाए कदम बहुत बार
बढ़ा भी रुका भी
गिरा भी संभला भी
बीने कंकर चल दिया राह पर अनथक
चलती रही आंधियाँ
बरसे बहुत गम के बादल
राह का धुंधलका घुलता रहा मंजिल पाने तक |
हर पल हर घड़ी
आती जाती रही बेआवाज़ साँसें
धड़का भी थमा भी
जीया भी मरा भी
मुखरित हुआ मौन बढ़ती रही जिंदगी
बदलते रहे पहर
लिखी जाती रही इबारत वक़्त के पन्ने पर
होती रही भोर काली रात बीत जाने के बाद |
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(अब तक जो जीया हाथ की लकीरों में था ...लकीरों में थी जिंदगी ....जिंदगी में बहुत कुछ था पर कुछ भी नहीं ....उस कुछ की तलाश में है अभी जीना भर शेष ...मेरे लिए !!)
सु..मन