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सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

अनदेखी मंजिल
















बढ़ते क़दमों को
रोकने के प्रयास में
गिरती उठती वो
कब तक संभाल पायेगी
हाथों से गिरते
पलों को
आस में बंधे
खाबों को
कैसे सहेज पाएगी
आँखों से गिरती
उम्मीदों को
धूल में उड़ती
यादों को
ये रास्ता अनदेखी मंजिल का
उसे न जाने
कहाँ ले जायेगा  
क़दमों के निशां रह जायेगें
कारवां बढ़ता जायेगा !!


सु-मन

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