कुछ अरसा पहले
एक लम्हा
ना जाने कहाँ से
उड़ कर आ गिरा
मेरी हथेली पे
कुछ अलग सा
स्पर्श था उसका
यूँ लगा... मानो !
जिंदगी ने आकर
थाम लिया हो हाथ जैसे
और मैंने उस हथेली पर
रख कर दूसरी हथेली
उसे सहेज कर रख लिया |
शायद ये दबी सी ख्वाहिश थी
जिंदगी जीने की.....
वक्त बदलता रहा करवटें
और मैं
उस लम्हे से होकर गुजरती रही
.
.
वहम था शायद !
मेरा उस लम्हे से होकर गुजरना ..
आज, अरसे बाद
वो लम्हा
मांगे है रिहाई मुझसे
अनचाहे ही मैंने
हटा ली हथेली अपनी
कर दिया रिहा उसको
अपने जज्बात की कैद से |
पर ..आज भी उसका स्पर्श
बावस्ता है मेरी इस हथेली पर
दौड रहा है रगों में लहू के संग
यही है जीने का सामान मेरा
यही जिंदगी के खलिश भी है ....!!
सु-मन