मन !
जानते हो, तुम कौन हो ?
शायद नहीं और शायद ही मैं कभी परिभाषित कर पाऊं तुम्हें | जब कभी कोशिश की तुम्हें
पाने की ..तुम्हें जानने की ...तुम खो गए ..अनभिज्ञ बन गए और जब कभी तुमसे दूर
जाना चाहा ..तुम ख़ामोश साये की तरह साथ चलते रहे | मैं अक्सर तुमसे पूछती ,
तुम्हारे होने का सबब और जवाब में एक ख़ामोशी के सिवा कुछ नहीं मिलता | शब्दों को
टटोलते हुए जब कभी मेरी ख़ामोशी धीरे – धीरे तुम्हारी ख़ामोशी में उतरती...कुछ शेष
नहीं बचता ...जानते हो उस एक क्षण में एक वर्तुल मेरी रूह को घेर शब्द और ख़ामोशी
के हर दायरे को पार कर जो रचता ..मुझे तुम्हारे होने का एहसास देता .... मुझे
मुझसे मिला देता ....मुझे जीना सीखा देता | शब्द से ख़ामोशी तक के इस सफ़र की
निर्वात यात्रा के मेरे एकल साथी मुझे यूँ ही अपनी पनाह में रखना !!
ये जो तेरे मेरे बीच
की बात है ... बेवजह है शायद ...कुछ बेवजह बातें हर वजह से परे होती हैं... है ना
‘मन’ !!
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का