बाबुल !
मौन हैं ये क्षण
पर भीतर
अंतर्द्वन्द गहरा
फैल रही
मानसपटल पर
सारी समृतियाँ
झर रहे हैं वो पल
आँखों से निर्झर
चल दिए थे
जब तुम
निर्वात यात्रा
छोड़ सारे बन्धन
... बीते दो बरस
माँ भी बदल गई
दिखती है उम्रदराज
हंस देती है बस
बच्चों की चुहल से
वैसे रहती है
चुपचाप |
देखो ! उस कोने में
बीजा था जो तुमने
प्यार का बीज
अब हरा हो गया है
एक डाली से
निकल आई हैं
और तीन डालियाँ
खिलते है सब मौसम
उसमें तेरे नेह के
अनगिनत 'सुमन'
माँ सींचती है उनको
अपने हाथों से
करती है हिफाज़त
हर आँधी से
यही है उसके
जीने का सामान
यही तेरी निशानी भी है !!
सु-मन