दोस्त वह जो जरूरत* पर काम आये ।
सोच में हूँ कि मैं / हम जरूरत का सामान हैं । जरूरत पड़ी तो उपयोग कर लिया नहीं तो याद भी नहीं आती । रख छोड़ते हैं मेरा / हमारा नाम स्टोर रूम की तरह मोबाइल की कोन्टक्ट लिस्ट में कोई जरूरत पड़ने तक !
फिर भी , मैं हूँ / हम हैं उम्र की आखिरी सतह तक एक दूसरे के लिए , गर समझ सको तो समझना !!
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-११)