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बुधवार, 13 सितंबर 2017

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (१३)

शाम खामोश होने को है और रात गुफ्तगू करने को आतुर ... इस छत पर काफी शामें ऐसी ही बीत जाती हैं ...आसमां को तकते हुए .... सामने पहाड़ी पर वो पेड़ आवाज लगाते हैं ..कुछ उड़ते परिदों को ..आओ ! बसेरा मिलेगा तुम्हें ..पर परिंदे उड़ जाते हैं दूर उस ओर ... अपने साथी संग .. सुनसान जंगल में रह जाती है पत्तों की चुप्पी ...।
आसमां तारों से भर चूका है ,सुबह की बदली का एक टुकड़ा बेतरतीब सा फैला छत पर कर रहा इन्तजार चाँद का ...।।

सु-मन

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