पवित्रता और अपवित्रता मन की होती है तन की नहीं । चाहे कितनी भी पूजा अर्चना कर लो, मन्दिर के फेरे लगा लो, मन अपवित्र तो तन से की पूजा का कोई महत्व नहीं । अगर मन पवित्र तो तन की अपवित्रता गौण हो जाती है वो अपवित्रता जो मनुष्य द्वारा रचित है । उपासनाओं का मार्ग मन से होकर निकले तो निश्छल होता है और तन में ही रुक जाए तो छलावा ।
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२१)