मैं आभारी हूँ रविन्द्र प्रभात जी और वटवृक्ष की पूरी टीम की जिन्होंने मेरी रचना को पत्रिका में स्थान दिया .....
तेरा अहसास ‘मन’ मेरे
तेरा अहसास ‘मन’ मेरे
मेरे वजूद को
सम्पूर्ण बना देता है
और मैं
उस अहसास के
बेतस लता सी
लिपट जाती हूँ
तुम्हारे स्वप्निल स्वरूप से
तब मेरा वजूद
पा लेता है
एक नया स्वरूप
उस तरंग सा
जो उभर आती है
शांत जल में
सूर्य की पहली किरण से
झिलमिलाती है ज्यूँ
हरी दूब में
ओस की नन्ही बूंद
तेरी वो खुली बाहें
मुझे समा लेती हैं
जब अपने आगोश में
तो ‘मन’ मेरे
मेरा होना
सार्थक हो जाता है
सार्थक हो जाता है
मेरा अस्तित्व
पूर्णता पा जाता है
और उस समर्पण से
अभिभूत हो
अभिभूत हो
मेरी रूह के जर्रे जर्रे से
तेरी खुशबू आने लगती है
महक जाता है
मेरा रोम रोम
पुलकित हो उठता है
एक ‘सुमन’ सा
तेरे अहसास का
ये दायरा
पहचान करा देता है
मेरी , मेरे वजूद से
और मेरे शब्दों को
आकार दे देता है
मेरी कल्पना को
मूरत दे देता है
मैं उड़ने लगती हूँ
स्वछ्न्द गगन में
उन्मुक्त तुम संग
निर्भीक ,निडर
उस पंछी समान
जिसकी उड़ान में
कोई बन्धन नहीं
बस हर तरफ
राहें ही राहें हों
‘मन’ मेरे
तेरा ये अहसास
मुझे खुद से मिला देता है
मुझे जीना सिखा देता है
‘मन’ मेरे.....
‘मन’ मेरे...... !!
सु-मन