बारहा हुआ यूँ कि
ज़ेहन में दबे लफ्ज़
निकाल दूँ बाहर
खाली कर दूँ
भीतर सब
रूह पर पड़े बोझ को
कर दूँ कुछ हल्का
लिखूं वो सब अनचिन्हा
जो नहीं चिन्हित कहीं और
सिवाय इस मन के
...पर
हर बार
लिखे जाने से पहले और बाद के अंतराल में
लौट आते हैं कुछ लफ्ज़
सतह को छूकर , बेरंग से
बैठ जाते हैं आकर
मन के उसी कोने में चुपचाप
यूँ तो पन्नों पर
पसर जाती है एक पूरी नज़्म
फिर भी
कलम तलाशती रहती है
उन ख़ामोश लफ्ज़ों को
मन टटोलता रहता है
कुछ पूरा ..वो अनचिन्हा !!
(अधूरा कुछ भी नहीं ..जो कुछ है उसका होना है ..उसका घटित होना ...पूरा या अधूरा नामालूम किस घड़ी मन में चिन्हित हुए ...मालूम है तो बस इतना कि पूरे से ज़रा सा कम है ...)
सु-मन