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शनिवार, 20 दिसंबर 2014

ये कैसा है ज़ेहाद














ये कैसा है ज़ेहाद
कैसा सकूँ-ए-रूह है
खाक करना अमन-ओ-वतन
किस मजहब का असूल है

ये कैसी है सरहद
कैसी मजहबी तलवार है
उजाड़ देना माँ की कोख़
किस इबादत का यलगार है

ये कैसा है जुनून
कैसा क़त्ल-ए-आम है
छीन लेना लख्त-ए-ज़िगर
किस अल्लाह का पैगाम है

ये कैसा है करम..तेरा मौला
कैसा रहमत का तूफान है
आँगन बना उजड़ा चमन
हर घर तब्दील कब्रिस्तान है
हर घर तब्दील कब्रिस्तान है....!!



सु-मन 

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-२)














मन !
ये जो आस की तुरपन है ना ..उधड़ी जाती है अब ..विश्वास के धागे को सिलते सिलते डगमगाती सूई की चुभन का स्पर्श मेरे ज़िस्म से होकर तुम तक जो पहुंचा तो तुम भी रो दिए मुझ संग | विश्वास के धागे की पकड़ कम रही या या आस की तुरपन से बने उन खाली हिस्सों की लम्बाई की बढ़त जिनमें कुछ फ़ासला होना जायज़ था | इस बढ़ते खालीपन को सिलना या यूँ कहो भरना आस का कारण था | ऐसा क्यूँ होता है मन .. क्यूँ एक पल में बंधी आस दूजे पल टूट जाती है | क्यूँ लम्हों को सिलना फिर खुद उन्हें उधेड़ना पड़ता है और वक़्त की मुट्ठी में कैद आस को खालीपन में बींध कर चिन्हित करना पड़ता है भीतर कहीं तुम्हारे पास ||

आस बंधी और फिर टूट गई ..खबर भी नहीं हुई किसी को ..क्या कुछ घट गया भीतर नहीं जान पाया कोई ..जो कुछ घटा तेरे मेरे बीच घटा .. मन अब तो समझा दे ..तू मेरा कौन है !!


सु-मन 

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-१)











मन !

जानते हो, तुम कौन हो ? शायद नहीं और शायद ही मैं कभी परिभाषित कर पाऊं तुम्हें | जब कभी कोशिश की तुम्हें पाने की ..तुम्हें जानने की ...तुम खो गए ..अनभिज्ञ बन गए और जब कभी तुमसे दूर जाना चाहा ..तुम ख़ामोश साये की तरह साथ चलते रहे | मैं अक्सर तुमसे पूछती , तुम्हारे होने का सबब और जवाब में एक ख़ामोशी के सिवा कुछ नहीं मिलता | शब्दों को टटोलते हुए जब कभी मेरी ख़ामोशी धीरे – धीरे तुम्हारी ख़ामोशी में उतरती...कुछ शेष नहीं बचता ...जानते हो उस एक क्षण में एक वर्तुल मेरी रूह को घेर शब्द और ख़ामोशी के हर दायरे को पार कर जो रचता ..मुझे तुम्हारे होने का एहसास देता .... मुझे मुझसे मिला देता ....मुझे जीना सीखा देता | शब्द से ख़ामोशी तक के इस सफ़र की निर्वात यात्रा के मेरे एकल साथी मुझे यूँ ही अपनी पनाह में रखना !!

ये जो तेरे मेरे बीच की बात है ... बेवजह है शायद ...कुछ बेवजह बातें हर वजह से परे होती हैं... है ना ‘मन’ !!



सु-मन 

सोमवार, 10 नवंबर 2014

मेरा 'बावरा मन' तू तो चर्चा-ए-आम हो गया रे

मेरे ब्लॉग 'बावरा मन' की चर्चा लगभग सात राज्यों से प्रकाशित 'पत्रिका समाचार पत्र' में ...
शुक्रिया मेरे मन ...मेरे लफ्ज़ों ..तुम बिन मैं कुछ भी नहीं | पत्रिका टीम का शुक्रिया और आभारी हूँ पाबला जी की जिन्होंने मुझे इसकी जानकारी दी | उन सभी पाठकों और ब्लोगर्स का तहे दिल से शुक्रिया जिन्होंने मेरे लेखन को सराहा और मेरे लफ्ज़ों को गति दी...शुक्रिया मेरे मौला ..यूँ ही मुझ पर अपना करम बनाये रखना !!

हिंदी blogs in Media :बावरा मन 


बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

प्रेम का नव दीपक



जिंदगी की दीवार पर
चिन्हित हैं उम्र के झरोखे  
जलाना तुम हर बरस
प्रेम का नव दीपक
डालना सदभावना की डोरी
भरकर करुणा का भाव
प्रदीप्त करना मंगलकामना की लौ !!


( दीवार पर चिन्हित झरोखों में उम्र भर का सामान है ..फिर भी खाली प्रतीत होते हैं ... भरा हुआ खालीपन नहीं दिखता ना.. देखो न ! प्रेम खालीपन में समाहित हो कितना जगमगाने लगा है !! )
 दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें ..... 

सु-मन

शनिवार, 30 अगस्त 2014

तुम्हारी चाहना
















मैंने एक चाह भर की
कि आज रात तुम ना निकलो
मैं खुली खिड़की से निहारूं राह
पर तुम ना आओ
अजीब सी शै है तुम्हारी चाहना
एक अनबुझ प्यास |

बाहर बारिश की बूंदों ने
कुछ आस बंधाई है
आज रात तुम
बादलों के पीछे छिप जाना
धुल जाये जब सुबह तलक
कलंक का ठीका
मेरी खिड़की तले
बिखेर देना तुम हल्की चाँदनी |
***
कलंक चौथ एक आस्था ...गणेश चतुर्थी एक उत्सव ..सब मन का फेर है...तुम्हारी चाहना इससे इतर कुछ भी नहीं !!

सु-मन


बुधवार, 27 अगस्त 2014

मुहब्बत का समीकरण









मुहब्बत पक्का ना थी
कभी कुछ गम
जमा हो जाता
कभी इकरार की हदें
नफ़ी हो जाती
कभी बेहिसाब मिलन के पलों को
गुणा कर
विरह के दिनों से
विभाजित कर देते
पर हल में जो भी शेष बचता
मुझे सिर्फ़ हमारा होने का सकूं देता...

हाँ , मुझे प्रिय है
हमारी मुहब्बत का ये समीकरण !!



सु-मन 

शनिवार, 23 अगस्त 2014

पूरे से ज़रा सा कम है ..













बारहा हुआ यूँ कि 
ज़ेहन में दबे लफ्ज़ 
निकाल दूँ बाहर 
खाली कर दूँ 
भीतर सब 
रूह पर पड़े बोझ को 
कर दूँ कुछ हल्का 
लिखूं वो सब अनचिन्हा 
जो नहीं चिन्हित कहीं और 
सिवाय इस मन के 

...पर 
हर बार 
लिखे जाने से पहले और बाद के अंतराल में  
लौट आते हैं कुछ लफ्ज़ 
सतह को छूकर , बेरंग से  
बैठ जाते हैं आकर 
मन के  उसी कोने में चुपचाप 

यूँ तो पन्नों पर 
पसर जाती है एक पूरी नज़्म 
फिर भी 
कलम तलाशती रहती है 
उन ख़ामोश लफ्ज़ों को 
मन टटोलता रहता है 
कुछ पूरा ..वो अनचिन्हा !!

(अधूरा कुछ भी नहीं ..जो कुछ है उसका होना है ..उसका घटित होना ...पूरा या अधूरा नामालूम किस घड़ी मन में चिन्हित हुए ...मालूम है तो बस इतना कि पूरे से ज़रा सा कम है ...)


सु-मन 




शनिवार, 9 अगस्त 2014

भैया सुनो !

Bhaiyu आपके लिए 










भैया सुनो !
नहीं जानती
कि क्यूँ कर
शुरू हुआ होगा
ये रक्षा बन्धन
कब,किस वजह से
बाँधी होगी किसी बहन ने
अपने भाई की कलाई पर
पहली राखी |

जानती हूँ
तो बस इतना
कि कच्चे धागे की डोरी को
बुना है मैंने
विश्वास के ताने बाने से
लगाए हैं इसमें  
अपने एहसास के रंग
और बांध दी है
तुम्हारी लम्बी उम्र की
गुढी गाँठ |

बदले इसके
नहीं मांगती कुछ
सिवाए इसके
कि ता-उम्र सम्भाले रखना
ये पवित्र बन्धन
मेरी ‘राखी’ को ना होने देना तुम राख !!


तुम्हारी बहन
सु-मन
(मेरी इस रचना को राजस्थान की Daily News अखबार के 'खुशबू' अंक में प्रकाशित करने के लिए वर्षा मिर्ज़ा जी का बहुत बहुत आभार)

सोमवार, 4 अगस्त 2014

बाबुल..तेरे जाने के बाद

(आज पापा को विदा किए दो बरस हो गए ...ऐ बाबुल ! बहुत याद आता है तू ..)










बाबुल !
मौन हैं ये क्षण
पर भीतर
अंतर्द्वन्द गहरा
फैल रही
मानसपटल पर
सारी समृतियाँ
झर रहे हैं वो पल
आँखों से निर्झर
चल दिए थे
जब तुम
निर्वात यात्रा
छोड़ सारे बन्धन
... बीते दो बरस
माँ भी बदल गई
दिखती है उम्रदराज
हंस देती है बस
बच्चों की चुहल से
वैसे रहती है
चुपचाप |

देखो ! उस कोने में
बीजा था जो तुमने
प्यार का बीज
अब हरा हो गया है
एक डाली से
निकल आई हैं
और तीन डालियाँ
खिलते है सब मौसम
उसमें तेरे नेह के
अनगिनत 'सुमन'
माँ सींचती है उनको  
अपने हाथों से
करती है हिफाज़त
हर आँधी से
यही है उसके
जीने का सामान  
यही तेरी निशानी भी है !!



सु-मन 

बुधवार, 23 जुलाई 2014

उसने कहा था












उसने कहा था 

बुत के समान 
जिन्दा लाश बनकर 
कब तक ढोते रहोगे 
जिंदगी का कफ़न 
आओ !
जड़ को चेतन में बदल कर 
फूलों के जहाँ में 
जीना सीखा दूँ 
चलो ! 
मरीचिका के आईने को 
पार कर देखो 
दर्पण के पहलू में 
अनेक बिम्ब दीखते हैं 
संभल कर पोंछ दो 
गर्द की परत 
निखर आयेगी हर छवि 
अंतस की गहराई में 
करो और देखो 
जिंदगी के दामन में 
हज़ारों रंग बिखरे हैं 
तुम्हारे लिए ..!!


सु-मन 

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

तब और अब









तब 


हल्का हल्का 

दर्द था 
छोटी छोटी 
ख़्वाहिशें थी ....

गहरा गहरा 

रिश्ता था 
महकी महकी 
आशाएं थी ..... 

भरा भरा 

दरिया था 
प्यासी प्यासी 
बारिशें थी ......














...अब 

अलग अलग 

रास्ता है 
भूली भूली 
यादें हैं .....

टूटा टूटा 

बन्धन है 
गुढ़ी गुढ़ी 
गांठें हैं .....

सूखा सूखा 

सावन है 
भरी भरी 
आँखें हैं ....... !!


सु..मन 

मंगलवार, 24 जून 2014

दुख - सुख















बीत जाने पर
नहीं रहता दुख , दुख सा
मिटटी हो जाता है
उपजाऊपन से भरा
जिसमें रोपा जाता है
सुख का बीज |

जानते हो !
कैसे ?
ज्यूँ डाली टूट जाने पर
नहीं रहता जब उसका वजूद
पत्ते सूखकर
बिखर जाते हैं राह पर
तब उस राह से गुजरते हुए
समेट लेता है उनको कोई
जला लेता है अलाव
तो जानते हो
उन पत्तों की टूटन का दर्द
दवा बन जाता है
डाली से बिछोह का दुख
तब दुख नहीं रहता
अलाव में जलकर भस्म हो जाता है
होती है उसे सुख की अनुभूति
राख हो जाने के बाद |

दरअसल
हर दुख के धरातल पर
पड़ती है आने वाले सुख की नींव
और
हर सुख के बिछोने पर
जन्मता है आने वाले सुख का अंश !!

*************

सु..मन
( एक दर्द की याद में ...एक बरस बीत जाने पर ) 

शुक्रवार, 6 जून 2014

ये एक गरम दिन था











ये एक गरम दिन था
जिसमें सूरज ने उड़ेल दिया
अपना सम्पूर्ण प्रेम
और धरा
उस प्रेम में तप कर
निर्वाक जलाती रही खुद को
आँख मिचे |

ये एक गरम दिन था
जिसमें नदी खुद पीती रही
अपना पानी
किनारे की रेत
प्रेम की प्यास में जलकर
अतृप्त शिलाओं के बाहुपाश में
देखते रही इकहरी होती नदी को
टकटकी लगाए |

ये एक गरम दिन था
जिसमें हरे वृक्ष पड़े थे
औंधे मुँह
मक्की बीजे खलिहानों में  
अंकुर ले रहा था
नवजीवन की अनमोल साँसें
पवन चक्की मांग रही थी
हिमालय से अपने हिस्से की
कुछ हवा |

ये एक गरम दिन था
जिसमें जीवन था..अनगिनत साँसें थी !!


सु..मन 

सोमवार, 2 जून 2014

बेआवाज़ ख़ामोशी











सब ख़ामोश है अब
लफ्ज़ भी
एहसास भी
बंद किताब की तरह .....

ख़ामोशी की सिलवटें
बढ़ रही
हर पन्ने पर
आहिस्ता-आहिस्ता......

बीच-
अब कुछ भी नहीं
सिवाय  
बेआवाज़ ख़ामोशी के......

हाँ, बेढब यादें जिल्द सी
अब तक किताब को समेटे है शायद !!


सु..मन

रविवार, 13 अप्रैल 2014

जीना भर शेष ...















जीने के लिए 
खाया भी पीया भी 
भोगा भी खोया भी 
किये अनेक तप चाहा मनचाहा फल 
बजती रही मंदिर की घंटियाँ 
जलता रहा आस्था की डोर का दीपक 
मरने से पहले बुझी नहीं आस की लौ |

बीच सफ़र 
डगमगाए कदम बहुत बार 
बढ़ा भी रुका भी 
गिरा भी संभला भी 
बीने कंकर चल दिया राह पर अनथक 
चलती रही आंधियाँ 
बरसे बहुत गम के बादल 
राह का धुंधलका घुलता रहा मंजिल पाने तक |

हर पल हर घड़ी 
आती जाती रही बेआवाज़ साँसें
धड़का भी थमा भी 
जीया भी मरा भी 
मुखरित हुआ मौन बढ़ती रही जिंदगी 
बदलते रहे पहर 
लिखी जाती रही इबारत वक़्त के पन्ने पर 
होती रही भोर काली रात बीत जाने के बाद |
******
(अब तक जो जीया हाथ की लकीरों में था ...लकीरों में थी जिंदगी ....जिंदगी में बहुत कुछ था पर कुछ भी नहीं ....उस कुछ की तलाश में है अभी जीना भर शेष ...मेरे लिए !!)


सु..मन 

शनिवार, 15 मार्च 2014

प्रेम रंग





















सुनो !
होली आने वाली है 
और 
तुमने पूछा है मुझसे 
मेरा प्रिय रंग 
चाहते हो रंगना मुझे 
उस रंग से ...

जानते हो ! 
कौन सा रंग प्रिय है मुझे 
वो रंग जो कभी ना छूटे 
रहे संग मेरे हमेशा 
जो ज़िस्म ही नहीं 
रंग दे मेरी रूह को भी ...

तो सुनो ! 
यूँ करो न लाओ कोई रंग 
बस अपनी आँखों में 
देखने दो मुझे मेरी छवि 
सुनने दो तुम्हारी धड़कन का साज़ 
मन की बाँसुरी पर बजाओ 
मेरे लिए एक नव गीत 
कि राधा बन रंग जाऊँ 
तुम्हारे रंग में 
लाल, पीला, हरा, गुलाबी 
समाहित हैं जिसमें सब रंग 
प्रेम रंग.. प्रेम रंग... प्रेम रंग !!

** जय राधे कृष्णा **

सु..मन 

सभी को होली की शुभकामनायें 

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

वक्त की तासीर














दिन गरम है अब 
और रातें ठण्डी 

सुना है -
सूरज को लग गया है 
मुहब्बत का रोग 
सुलगने लगा है दिन भर 

शाम की माँग में 
टपकने लगा है 
उमस का सिन्धूर 
आसमां रहने लगा है ख़ामोश 

रात कहरा कर 
ढक लेती है 
ओस का आँचल 
चाँद भटकता है तन्हा रातभर 
****************

बदल रहा है मौसम शायद 
वक्त के बयार की तासीर बदल रही है !!


सु-मन 





बुधवार, 29 जनवरी 2014

बता मन मेरे..गीत लिखूँ कौन सा !











शब्द सारे खो गए 
छा गया है मौन सा
अब तू बता मन मेरे 
गीत लिखूँ कौन सा ।

शब्द सागर है भरा  
साहिल है बेचैन सा
अब तू बता मन मेरे 
मोती चुनूँ कौन सा ।

ज्वलंत हैं अभिलाषाएँ 
अस्तित्व है गौण सा 
अब तू बता मन मेरे 
रास्ता बढूँ कौन सा ।

नेह हृदय है बह रहा
माझी है निष्प्राण सा
अब तू बता मन मेरे 
पतवार ढूँढू कौन सा ।

अब तू बता मन मेरे
गीत लिखूँ कौन सा ....!!

सु..मन

रविवार, 12 जनवरी 2014

माँ सुनो !
















(बेटी दिवस पर)

माँ सुनो !

जब पहली बार 
किया था महसूस 
अपने गर्भ में 
मेरा वजूद 
तो बताओ ना 
मेरी धड़कन में 
किसे जिया था तुमने 
एक बेटा या बेटी ।

जब कभी 
अकेले में बैठ 
करती थी मुझसे बात 
क्या कुछ पनपता था 
तुम्हारे भीतर 
एक बेटी की चाह
या बेटे का सपना ।

जब पहली बार 
गूँजी मेरी किलकारी 
लिया था अपने हाथों में 
तुम्हारी सोच की हकीकत को 
बताओ ना 
कैसे स्वीकारा था तुमने ।
.
.
.
तुम मौन हो माँ 
जानती हूँ तुम्हारी चुप्पी 
इतने बरस 
बेटी के वजूद को 
महसूस करती आई हूँ 
तुमसे होकर गुजरती 
तय कर रही हूँ 
तुम्हारे गर्भ से इस घर तक सफ़र !!

तुम्हारी बेटी


सु..मन
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