मुहब्बत पक्का ना थी
कभी कुछ गम
जमा हो जाता
कभी इकरार की हदें
नफ़ी हो जाती
कभी बेहिसाब मिलन के पलों को
गुणा कर
विरह के दिनों से
विभाजित कर देते
पर हल में जो भी शेष बचता
मुझे सिर्फ़ हमारा होने का सकूं देता...
हाँ , मुझे प्रिय है
हमारी मुहब्बत का ये समीकरण !!
सु-मन