एक कहानी होती है । जिसमें खूब पात्र होते हैं । एक निश्चित समय में दो पात्रों के बीच वार्तालाप होता है । दो पात्र कोई भी वो दो होतें हैं जो कथानक के हिसाब से तय होते हैं । कथानक कौन लिखता है... उन किसी को नहीं मालूम । मालूम है तो बस इतना कि उस लिखे को मिटाया नहीं जा सकता । प्रतिपल लिखे को आत्मसात कर कहानी को आगे बढ़ाते जाते हैं । इस कहानी में मध्यांतर भी नहीं होता कि कोई सोचे जो पीछे घटित हुआ उसके अनुसार आगे क्या घटित होगा । बस होता जाता है, सब एक सुव्यवस्थित तरीके से । कहानी कभी खत्म नहीं होती । हाँ बस पात्र बदलते रहते हैं ।
वार्तालाप खत्म होने पर भी पात्र इकहरा नहीं होता , जाने क्यूँ ...
दोहरापन हमेशा लचीला होता है शायद इसलिए !!
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-९)