जिसमें
सूरज ने उड़ेल दिया
अपना
सम्पूर्ण प्रेम
और
धरा
उस
प्रेम में तप कर
निर्वाक
जलाती रही खुद को
आँख
मिचे |
ये
एक गरम दिन था
जिसमें
नदी खुद पीती रही
अपना
पानी
किनारे
की रेत
प्रेम
की प्यास में जलकर
अतृप्त
शिलाओं के बाहुपाश में
देखते
रही इकहरी होती नदी को
टकटकी
लगाए |
ये
एक गरम दिन था
जिसमें
हरे वृक्ष पड़े थे
औंधे
मुँह
मक्की
बीजे खलिहानों में
अंकुर
ले रहा था
नवजीवन
की अनमोल साँसें
पवन
चक्की मांग रही थी
हिमालय
से अपने हिस्से की
कुछ
हवा |
ये
एक गरम दिन था
जिसमें
जीवन था..अनगिनत
साँसें थी !!
सु..मन