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मंगलवार, 1 मार्च 2016

सोच की हद















हर बार सोचती हूँ
एक हद में सिमट जाऊँ
कर लूँ अपनी सोच को
एक अँधेरी कोठरी में बंद
दुनिया की रवायत संग
जीने लगूं एक बेनाम जिंदगी
बांध अपने पैरों में बेड़ियाँ
चल दूँ राह पर उस तरफ
जिस तरफ ले जाना चाहे कोई
दिल दिमाग के हर दरवाजे पर
लगा दूँ एक जंग लगा ताला
मन के वांछित कारावास से
कर दूँ निर्वासित अपना वजूद !
*****
सोच से हदें तय हुई या हदों से सोच ..कौन जाने ...जाना तो बस इतना कि हदों की खूंटी पर टंगे रहते हैं वजूद के लिबास और सोच के ज़िस्म पर पहनाई जाती हैं कुछ बेड़ियाँ !!



सु-मन 

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