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शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (७)



                              खोया कुछ भी नहीं जो पाया था । जो पाया था वो अब तक भीतर है ।उसे खोया ही नहीं जा सकता । तुम हमेशा खोजते रहते थे भटकते रहते थे यहाँ वहां । सब कुछ तो यहीं था भीतर, सब जगह तलाशा तुमने बस अपने भीतर नहीं देखा । मैंने भीतर देखा और पा लिया । तुम गए कब थे जो वापिस तुम्हारी राह निहारूं । जब पाया था तो स्व को खोकर आत्मसात कर लिया था । जानती थी एक दिन तुम बंधन से मुक्त होना चाहोगे क्यूंकि तुम्हारे लिए मात्र बंधन है प्रेम । तुम एक बंधन में बंधे , कारण खोजते रहे क्यूँकर हुआ प्रेम । सब तो परिपूर्ण था क्यूँ हुआ । जरा सा बंधन छूटा की क्षीण पड़ गया । रूह को नहीं छुआ था शायद तभी छूटा । रूह तक महसूस करते तो पाते सब खो जाता है कुछ नहीं बचता शेष । सब समाहित हो जाता है । रीत जाता है । उस रीतने में जो सुख मिलता है वो उम्र भर खोजते रहोगे तब भी न मिलेगा । भटकते रहोगे ताउम्र नहीं मिलेगा । गर मिलना हो एक क्षण भी न लगेगा । मैंने पा लिया उस क्षण जब स्व को त्याग आत्मसात कर लिया। बंधन नहीं खुद को खुला छोड़ दिया था निर्वात यात्रा में तुम संग और दिशा विहीन सोच को बह जाने दिया था तुम्हारे अनुरूप । खोने और पाने के बीच के अंतराल में टिका 'मन' आज भी चल रहा निर्वात यात्रा पर अकारण ..अनथक !!!
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