पिछले 2-3 बरस के सहेज कर रखे सामान को टटोला तो पाया कि वक़्त के साथ-साथ बदलने लगा है सब । उस वक्त के सहेजे इस सामान में फफूंद लगने लग गई है । बहुत बचा के रखा था कि बेशकीमती ये सामान यूँ ही नया नया रहे । पर इक उम्र होती है हर चीज़ की, उसके बाद वो नयापन फीका पड़ जाता है उसकी जड़ता दम तोड़ने लगती है । ये सोच अब उनको छाँटना शुरू कर दिया है । कुछ बेलिबास से लफ्ज़ टंगे थे अलमारी के एक खाने में, उनको स्याही का जामा पहना कर रख दिया है सबसे नीचे के दराज़ में । कुछ अनछुई सी यादें विंड चाईम के धागे से जब उलझती थी तो हवा में नमी फैल जाती थी, उन यादों को घर के बंद पड़े पिछले दरवाजे पर सुलझा आई हूँ ।
उलझन कुछ भी नहीं थी और सुलझा कुछ भी नहीं... लफ्ज़ ख़ामोश भी नहीं थे और आवाज़ का शोर भी नहीं था .. फिर भी इस कीमती सामान को अलग रख दिया अब दीमक लगने से पहले ।
असल में इन ख़याली दीमक से बहुत परेशान हूँ मैं !!
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-७)