एक क्षण -
ओझल हो गया सब
भूत का बोझ उठाये
शिथिल कदमों में आ गई आतुरता
झुक गया 'मैं' का स्वामित्व
आसान न था
उस पार का सफर
मिथिल भ्रम की उपासना का मोह
जन्मजात क्रियाओं का दम्भ
बहुतेरा था इस पार के स्थायित्व के लिए
मझधार, भावनाओं का ज्वार
डोलता रहा इस पार से उस पार
स्थितप्रज्ञ तुम देखते रहे मेरा बे-मेल प्रवाह
'मैं' तलाशता रहा तुम्हारी बाहों का सहारा
बाद,एक क्षण -
जब बंद थी आँखें
श्वास होकर भी श्वास रहित अनुभूति
कदम निश्चेत फिर भी चेतना का विस्तार
पर-स्थित तुम फिर भी मुझमें व्याप्त
ले गए मुझे बिन डोर उस पार
और उस एक क्षण जी लिया 'मैं' अपनी हर श्वास ।
सु-मन
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3743 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत अच्छा मार्मिक लिखा आपने। भाषा बहुत परिष्कृत और सुसंस्कृत है आपकी।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तूति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंwaah ati sundar
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २६ जून २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जज़्बातों का रुहानी अहसास।
जवाब देंहटाएंअद्धभुत....
जवाब देंहटाएंकहाँ हैं आप... फेसबुक पर नहीं दिख रहे
जवाब देंहटाएंhttp://koshishmerikalamki.blogspot.com सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर लिखा है आप मेरी रचना भी पढना
जवाब देंहटाएंमैं बस इस पृष्ठ पर ठोकर खाई और कहना है- वाह। साइट वास्तव में अच्छी है और अद्यतित है।
जवाब देंहटाएंBA 2nd Year TimeTable 2020