दोस्त वह जो जरूरत* पर काम आये ।
सोच में हूँ कि मैं / हम जरूरत का सामान हैं । जरूरत पड़ी तो उपयोग कर लिया नहीं तो याद भी नहीं आती । रख छोड़ते हैं मेरा / हमारा नाम स्टोर रूम की तरह मोबाइल की कोन्टक्ट लिस्ट में कोई जरूरत पड़ने तक !
फिर भी , मैं हूँ / हम हैं उम्र की आखिरी सतह तक एक दूसरे के लिए , गर समझ सको तो समझना !!
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (भाग-११)
यही जीवन है ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26-07-2017) को पसारे हाथ जाता वो नहीं सुख-शान्ति पाया है; चर्चामंच 2678 पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सही
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