ये जीवन कढ़ाई में उबलती घनी मलाई की तरह है जिसमें हमारे सदगुण व अवगुण ( विकार, विचार, अच्छाई, बुराई, मोह, तृष्णा, विरक्ति) सब एक साथ होते हैं जो उस मलाई की मिठास को प्रतिबंधित किये रखते हैं अपने-अपने स्वरूप के कारण । लेकिन जैसे-जैसे कढ़ने पर एक दूसरे से दूर हटने लगते हैं मिठास (सदगुण) घी के रूप में अपने आप अलग होकर सुगंध के साथ ऊपर आने लगती है और अंत में अवगुणों का कड़वापन सूखे पेड़ा बन निष्क्रिय हो जाता है । इसी तरह जीवन की मिठास पाने के लिये हमें तपना पड़ता है अवगुणों का दमन करना पड़ता है ।
सु-मन
पिछली कड़ी : शब्द से ख़ामोशी तक – अनकहा मन का (२४)
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (29-06-2022) को चर्चा मंच "सियासत में शरारत है" (चर्चा अंक-4475) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह। यथार्थ।
जवाब देंहटाएंसार्थक संदेश
जवाब देंहटाएंवाह! दर्शन सम्मत सुंदर भाव सृजन।
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया 👌
सच कहा आप ने।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया 👌
सही कहा। तप कर ही गुण मलाई की तरह ऊपर आते हैं। सार्थक लेख।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया। 👍🏻👍🏻
जवाब देंहटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंक्या बात...
वाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर...
लाजवाब।
जीवन को समझने का अलग अंदाज, विचारणीय,सादर नमन 🙏
जवाब देंहटाएंक्या बात है 👌👌👌 आज कल दार्शनिक हो रही हो
जवाब देंहटाएंवाह , क्या बात है । दार्शनिक हो गयी हो ।।
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